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RE:HI



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तोषी और कोशी के हासिलात

तोषी और कोशी अपनी अपनी जगह अपनी-अपनी उपलब्धयों के झंडे गाद रही है। ३-६ तक कोशी के कॉलेज का वार्श्कोत्सव था। वह उसकी वर्किंग कमेटी में थी और अपने ह्रुप की सबसे अनुशासित बच्ची के रूप में थी। इस बीच उसने दो स्पर्धाओं में हिस्सा लिया उअर अव्वल आई। वह फैशन डिजाइनिंग में जाना चाहती है और इसलिए ईईती, मुम्बई के वार्षिकोत्सव 'मूड इंडिगो' में उसने इससे सम्बंधित अपनी प्रविष्टि भेजी। यह चुन ली गई है और वह अब इसमें व्यस्त है। अपने अपने उम्र के इस पड़ाव पर उसका आत्म विशवास हैरान करनेवाला है और खुशी भी देने वाला।
आज तोषी का कन्वोकेशन है। बंगलोर के सृष्टि स्कूल ऑफ आर्ट एंड डिजाइन से विजुअल कम्यूनिकेशन में पीजी कोर्स कराने के बाद आज उसका कोर्स समाप्त हो रहा है। इस बीच वह नौ महीने के लिए भारत सरकार की और से पाकिस्तान के लाहौर में भी रही। यहाम बंगलोर में उसका प्रोजेक्ट भारत और पाक के एक नामालूम सी लगनेवाली हस्ती पर था और वह था दोनों जगह के औतोरिकशावालों की बातचीत। इस बातचीत के माध्यम से उसने दोनों देशों के एक आम नागरिक की हैसियत से दोनों देशों के सोच को दिखाना चाहाता। और इसका माध्यम उसने कबूतर को चुना। कबूतर को संदेशवाहक कहा और माना जाता रहा है। इसी के माध्यम से उसने अपनी बात कहने की कोशिश की। कहना ना होगा की उसका यह प्रयास बहुत सफल रहा। उसके स्कूल के एग्ज्बिशन में उसका काम सबसे ज़्यादा पसंद किया और सराहा गया। यहाँ तक की लोगों ने उसे यहाँ भी एग्जिबिशन की स्टार कहा। अपने काम का यह संतोष उसे तो है ही, हम दोनों को भी हाय। उसके टीचर और दीं ने कहा की हम बेहद सौभाग्यशाली माता-पिटा हैं की हमें ऎसी प्रतिभावान बेटी मिली है। मैं इसे अपना सौभाग्य तो मानती ही हूँ, साथ में, उसकी अदम्य मेहनत और साहस की तारीफ़ भी करती हूँ। वह सेल्फ्मेद है और इसका मुझे अभिमान है। आज शाम में उसका कन्वोकेशन है। हम दोनों बंगलोर में हैं और शाम में उसे अपने काम के लिए सम्मानित होता देखेंगे। वैसे ही, जब हम लाहौर में थे और उसे पंजाब के गवर्नर द्वारा सम्मानित होते देखा था। मुझे यकीन है की ये दोनों बहने अपने अपने क्षेत्र में खूब नाम करेंगी। तोषी की टीचर ने तो कहा भी की इसका काम अंतर्राष्ट्रीय स्टार का है। देश में इसके काम को पहचाननेवाले शायद ना मिलें।

रश्मि का चुलबुला मेल

---------- Forwarded message ----------
From: Rashmi Singh <rashmitoons@gmail.com>
Date: 2008/10/7
Subject: chulbul
To: avinashonly@gmail.com

बेटियों की समझदारी जल्दी बढ़ती है या उनकी उम्र..यह सच में मेरे लिए एक जटिल प्रश्न है. चुलबुल आज चार साल की हो चली...लेकिन उसकी बाते..उसकी सोच... उसका लिखना...उसका याद करना... सब कुछ उसके उम्र से आगे की बातें है. सच कहू तो कभी-कभी उसे इतनी जल्दी समझदार होते देख डर भी लगता है..कि कही समय से पहले बड़ी तो नही हो रही. अपने पापा को भी कार्टून बनने में मात दे रही है...वो जब इसकी उम्र के थे तब शायद कार्टून का मतलब भी नही जानते थे. कार्टून्स के सारे कैप्शंस ख़ुद बताती है. मेरा काम होता है उसे लिखना..हलाकि अब लिखने भी लगी है..और मजाल है कि उसके बताये कैप्शंस में कुछ फेर-बदल हो जाए. स्कूल से लौटते हुए यदि आइसक्रीम लेने कि जिद हुई और यदि मैंने कोई कारण बता कर उसे खारिज कर दिया तो अगले पल उसका जवाब होगा.. अच्छा तो चलो toffy या juice ही ले लेते है..क्या माँ है न अच्छा idea.?

नीचे उसके ब्लॉग का लिंक है...जब से ब्लॉग बनाया है मेरी तो फजीहत हो गई है....जब-तब यही सुनाने को मिलता है.. माँ isko ब्लॉग per दल देना... अब दल दिया है तो आप लोग भी फजीहत देखे.

http://chulbulrashmitoons.blogspot.com/

आज बेटियों का दिन है

सुबह की बेला में मैने सोचा क्यों ना आज उन सारी बेटियों को याद मैं करुँ जो मेरी है भी और नहीं भी. आज का दिन बेटियों का दिन के रुप में मनाया जाता है। क्यों, किसलिए मनाया जाता है के प्रश्नों के चक्कर में ना फंस कर बस दिन को मनाने का प्लानिंग कीजिए. वैसे भी आज सनडे है जो कि बच्चों का दिन होता है.
बेटियां शब्द से मुझे हरवक्त ऐसा ही महसूस होता है-कि नाजुक सी, सुन्दर सी, गोरी सी, प्यारी सी, मन से जुडी़ हुई, तन से भी जुड़ी हुई,पर...... थोड़ी पराई सी.
ये एक सच है. लोग कई दलील दे लें कि नहीं बेटियां पराई नहीं होती है बेटियां तो अपनी होती है. पर सच तो सच है.
वैसे आज के दिन ऐसी बातें नहीं करते, क्योंकि मन दुखित होता है.
आज मुझे अपनी बेटी को सरप्राइज देना है. सरप्राइज क्या होगा यह मैंने भी अभी तक तय नहीं किया है.
मेरी एक बेटी है - सिमरन. मैं उसे पिछले दो महिने से ट्युशन पढ़ा रही हूं. चौथे क्लास में है और पढ़ाई में बिल्कुल फिसड़ी. देखने में नाजुक सी, बहुत सुन्दर, भोली, प्यारी, सारी बातें उसकी बहुत अच्छी बस पढ़ाई नहीं करना चाहती.
वो दो बहनें हैं और एक छोटा भाई है. मुझे उसके बारे में जानकर बड़ा आश्च्य तब हुआ जब उसने बताया कि वह अपने पापा से बिल्कुल भी बात नहीं करती. उसके पापा छोटे भाई को प्यार करते हैं और छोटी बहन सर चढ़ कर प्यार करवा लेती है. पर उसके हिस्से का प्यार कहीं नहीं है. मैं भी कई बार तंग हो जाती हुं उसके बचपने से तो उसे होम वर्क नहीं कर के लाने के जुर्म में घर वापस भैज देती हूं. पर जब वह कर के लौटती है तो मुंह सुझा हुआ होता है। मैं अंदर से दुखित हो जाती हुं. और पढ़ाई को कोसती हुं क्यों ये पढ़ाई जैसी चीज बनी जिससे बचपन खेलने की जगह किताबों में गुजरता है. पर अब उसके मैथ्स, इंग्लीश टीचर सारे खुश हैं क्योंकि उसने भी अब जवाब देना सीख लिया है। मुझे पोटती रहती हैं कि आंटी आपके कारण ही आज मेरी टीचर मुझ से खुश है. मम्मी से मेरी तारीफ कर रही थी।
मम्मी से उसे प्यार नहीं है क्योंकि वह उसे मारती है, पापा अच्छे हैं उसने कहा था- मैं उनसे ही ज्यादा प्यार करती हूं.
पर मैं उस दिन से यह समझ नहीं पा रहीं हूं कि वह पापा जो उससे बात भी नहीं करते वैसी बच्ची उनसे अभी तक के जीवन में सबसे ज्यादा प्यार कैसे कर पाती है.

मेरी बेटियों का कारनामा

मेरी इच्छा आज थोड़ी सी जग उठी और मैने सारे काम को दरकिनार कर के कुछ अपनी बेटियों के बारे में लिखने का निश्चय किया. मेरी दो बांह मेरी बेटियां अब बडी़ हो रही है. बड़ी बेटी तो सात साल की होने वाली है पर काफी बड़ी हो गई है आश्चर्यजनक रुप से. उसकी हरकत और मेरे और अपने पापा के प्रति केयरिंग नेचर देखने लायक होता है. श्रुति मेरी छह माह की बेटी का जब पाटी साफ करने में भी नहीं हिचकती. सुबह उठकर कहती हैं कि मिठी को देखकर कि अरे, मेरी बेटी उठ गई। बहुत प्यार करती है. दूसरे को गोद लेने नहीं देती अगर वह अपने घर का आदमी नहीं है तो.
एक दिन तो गजब ही हुआ कि मैं श्रुति को डाँट रही थी फिर मुझे लगा कि कहीं उसे यह ना लगे कि मुझे डांटती है और मिठी को नहीं डांटती तो मैने उसे भी कुछ कुछ बोलना शुरु किया. फिर देखना था कि उसने मिठी को गोद में उठा लिया और खूब रो रो कर कहने लगी मुझे डांटती हो तो कोई बात नहीं पर मिठी को डांटी ना तो मैं पापा से कह दुंगी...
मुझे बड़ा मजा आया और मैं बहुत खुश हुई और दुआ की कि ऐसे ही प्यार दोनो में सदा बना रहे तो ये दोनो की जिन्दगी मजे से एक दूसरे को सहारा देते हुए कट जाएगी.
मेरी श्रुति को पिछले दिनों 14 अगस्त के प्रोग्राम में डांस करना था। और उसकी तैयारी तो उसने कर ली थी पर साजो समान की तैयारी करने में हम दोनो को नानी दादी याद आ गई। उसके पापा आफिस का फस्ट हाफ छोडकर चुडियां खरीदने गए. मैं काफी बीमार थी इसलिए कुछ कर ना सकी. पर चुडियां ले कर साथ में और कई सामान ले कर आए तो मैं सोचने पर मजबूर हो गई कि बीते आठ सालों में शायद ही इन्होने मेरे लिए चुडियां खरीदी हो पर बेटी के लिए खरीदने के लिए आफिस को भी छोड़ दिया हो.
मेरी श्रुति के हिन्दी के शब्दकोश बहुत तगड़े हैं. अभी पोटी जाते वक्त मुझ से कह रही है कि मुझे तीन बार दस्त आ गए हैं. मैने दस्त शब्द सिफ्र सुना है बातचीत में कभी प्रयोग नहीं कर पाती. श्रति गाना गा रही थी तो शब्द आया -बाबुल- मैने सिफ्र जानने के लिए पुछा कि बाबुल का मतलब क्या होता हैं तो आश्चर्य में रह गई कि उसने ठीक बताया.
तो यह है हमारी बेटियां. हम उनके साथ जी रहें हैं और यह सोच रहें हैं यह हमारे उन सपनों को सच करेगी जिन्हें हम करना चाहते थे या हैं.

कोशी और दाल - भात

दफ्तर के काम से मुझे अक्सर बाहर दौरे पर जाना पङता है। कल भी गोवा गई। सुबह गई और शाम को लौट आई। गोवा की फ्लाईट एक घंटे की है और एयरपोर्ट से घर पहुँचाना भी एक घटा ले लेता है ट्रैफिक की वज़ह से। आजकल मेरी बहन और बहनोई आए हुए हैं। वे भी पुणे गए थे और लौट रहे थे, शाम में। हम दोनों ही अपने-अपने गंतव्य से लगभग एक ही समय घर पहुंचनेवाले थे। हम दोनों ही थके हुए। दीदी बड़ी है, इसलिए माँ सरीखा ममतापन उसमें है और चूंकि घर मेरा है (यह अलग मुद्दा है कि औरतों का भी घर होता है क्या?), इसलिए पूरे रास्ते मैं यह सोचती आ रही थी कि घर पहुंचाते ही क्या- क्या बना दूँगी खाने के लिए।
रात के सवा नौ बजे के करीब मैं घर पहुँची और यह देखकर बहुत सुखद लगा कि कोशी ने अपने मन सेसभी के लिए दो कुकर में अलग-अलग दाल-चावल बना कर रख दिया है। अब मुझे केवल सब्जी और चपाती बनानी थी। आजकल वह कॉलेज जाने लागी है। कॉलेज जाने से उसका आत्म विश्वास काफी बढ़ा है। वह अपने कॉलेज के सालाना समारोह की वर्किंग कमिटी में आ गई है। अपना काम बहुत सलीके और लगन, उत्साह से कर रही है। दूसरे, अपनी दीदी तोषी में उसकी जान बसती है। आप उसके ख़िलाफ़ कुछ बोल दें, तो शायद वह आपकी जान लेने से भी न हिचके।
उसमं आ रही यह तब्दीली उसके अपने विकास के लिए जरूरी तो है ही, हमें यह सुकून देती कि वह जो भी करेगी, अच्छा करेगी और जिम्मेदारी के साथ करेगी। कल ही उसने यह भी कहा कि उसकी परीक्षा शुरू होनेवाली है और अब उसने पढ़ना शुरू कर दिया है। बात दाल -भात से निकलकर यहाँ तक आ गई । यह सब उसी की महिमा है।

लाहौर तू बड़ा याद आयेगा मुझे

तोषी लौट आई है और इन दिनों अपनी लाहौर परियोजना पर काम कर रही है ।प्रस्तुत है उसका लिखा एक शब्द चित्र लाहौर के बारे में ...


नीले रंगबिरंगे रिक्शे
उनमें बैठे सलवार कमीज पहने ड्राईवर
आँखों के इशारे से रिक्शा रोकना
उचक कर तंग रिक्शों में
बैठना चाचा से पैसे तय करना
पर्देदार रिक्शों में महफूज़ महसूस करना
टूटे धूमिल आईनों में अपना हुलिया संवारना

रिक्शेवालों से गुफ़तगू
अपनापन सा लगना
इंडिया की बातें
उनकी आंखों का चमकना
उनकी आवाज़ की उठान
मंजिल पहुँचते-पहुँचते दोस्ती हो जाना
शुक्रिया मेहरबानी का छिडकाव
ये सब तो याद आएगा ही
भूलेगा नहीं उतारते वक्त कुरते का कील पर अटक कर फट जाना

मौसम का बदलना
बसंत के रंगबिरंगे फूल
आतिशी रंगत
यूँ लगता हो जैसे बस आप ही के लिए खिले हैं ये फूल
जैसे मौसम खेल रहा हो होली

सुर्ख गुलाबी चेहरे
झुर्रियों में भी चमक
ऊंची पायंचों वाली सलवार
ऊंची चानकों से झांकती बालाओं की कमर
गोरी चिट्टी ...आटे की लोई
मैचिंग मैचिंग का अंदाज़
लांडा कैसे घूमूंगी अब
परांदे वाली चप्पलें भी कुछ सालों में घिस ही जायेंगी
चाचा चाचा के नारे कौन लगायेगा
आते जाते बाजी कौन बुलाएगा

बिंदी लगाकर कहाँ इतराऊंगी
मैं साड़ी पहन किसे कमर दिखाऊंगी मैं
कहाँ लगेगा अब कुछ भी खास
धूल भी तो नहीं होगी तेरी मेरे पैरों के पास

आँखों ही आँखों में से इशारे करूंगी अब
माशाल्लाह की छेड़खानी कौन करेगा अब

इतने सारे हरे रंग कहाँ नज़र आयेंगे मुझे
साफ़ सड़कों पर पानी कैसे देखूँगी
इंडिया से आती नहर का भी नज़ारा नहीं होगा अब
कुछ तो हमेश जुड़ा है
ये दिलासा कौन देगा अब

इंडिया से आए मेहमान को देख
चमकती आंखों का नज़ारा न होगा अब
टूटे फूटे सवालों का जवाब कैसे दे सकूंगी अब
इंडिया की तारीफ किस से करूंगी अब
अपने मुल्क के बारे में सब नायाब कैसे लगेगा अब

गंदे नाले के पास से गुजरने पर
बॉम्बे कैसे याद आएगा अब

लेस गोटे का फैशन कैसे दिखेगा अब
ऊंची सलवारों का नज़ारा भी न होगा अब
ऊंची सलवार पहनना कितना अटपटा लगेगा अब

कैसे पियूंगी बोतल हर दुकान पर
चाय बोतल का कौन पूछेगा अब
फ़ोन रिसीव करके सिर्फ़ हेल्लो बोलेंगे अब लोग
सलाम वाले कुम बहुत याद आएगा अब

मुर्गियों की दावत बहुत खास लगेगी अब
कोक भी ठंडी नहीं ठंडा होगा अब
शोएब की जगह आमिर पिलायेंगे उसे अब
बिरयानी आम न होगी अब

खोसों की कतारें कहाँ दिखेंगी अब
पठानों के बच्चे कहाँ दिखेंगे अब पंजाबी,पश्तो कहाँ सुनूंगी अब
टूटी उर्दू कैसे सुनूंगी अब

कोरोला बीटले वाली सड़कें नजर आएंगी कहाँ
चौडी सड़कें बस ख्वाब में नजर आएंगी अब
हरियाली ही हरियाली नजर आएगी कहाँ
हवाई जहाज सी गाड़ी में केसे बैठूंगी अब

पूरी रात तेरी खूबसूरती कैसे निहारूंगी मैं
एक बजे चमन में नारंगी पिस्ता बादल आइसक्रीम कैसे खाऊगी अब मैं?

पाइन, गोल्डलीफ नहीं होगी वहां
विल्स लाइट से ही काम चलाना पड़ेगा
20 का कौन सा पैकेट मिलता है
फिर से ढूंढना पड़ेगा
रानी मुखर्जी की लाइट मारने लाइटर भी नहीं होंगे वहां

सुर्ख लाल रंग के नाखून कैसे नजर आयेंगे
लंबे लंबे नाखूनों से मुलाकात नहीं होगी
नक्काशीदार सैंडलों से झांकते खूबसूरत पैर भी नहीं होंगे कहीं
हर लिबास से मिलती चप्पलें कैसे मिल जाती हैं इन्हें?
ये हैरत भी नहीं होगी अब
बाहर का देख कौन रेट बढाएगा
इंडिया की जान रेट कम भी कैसे हो जाएगा
इत्मिनान से बातें कैसे होंगी
तेज धूप में सोना, कैसे लगेगी तेरी धूल
पैरों पर प्यार से कैसे लिपटेगी ये धूल
काश कि पैरों के भीतर घुस जाती ये धूल

अनारकली की चुलबुलाहट याद आएगी बहुत
माल रोड का शोर नहीं भूलेगा अब
साफ उदास जेल रोड भी प्यारा ही लगेगा अब
कैवलरी की पहचानी हुई गलियां भी गैर हो जाएंगी अब

बेस्ट बाई घर जैसा नहीं लगेगा अब
पेस पड़ोस में नहीं होगा अब
हर इतवार कैदी का रूटीन नाश्ता
तेलदार भटूरे नहीं पूरियां
निहारी की खुशबू
हल्का नारंगी मीठा हलवा
आहा।। कितना याद आएगा पूरी साथ हलवा खाना
छाती लस्सी की चटखार भी न भूल जाए

लिबर्टी की रंगीन दुकानें
दुपट्टा गली का शोर
चाय बनाते पेशावर के बच्चे
रंगरेजों की मटमैली उंगलियां
नायाब तरीकों से कपड़े सुखाना
रंग का नापा औला हिसाब
बंधनियों का ढेर

तीन बजे रात का उदास पान
फिर भी उसे खा लेने की खुशी
आधी रात पान वाले गाने गुनगुनाना
हैरत से देखती आंखें हर तरफ आशिकों का नजारा
महंगे दाम में कैमल खरीदना

आपके रूक कर कुछ पूछने पर
पूरी दुनिया का थम जाना
मदद करने की चाह
अच्छे खराब खयालात
हर भद्दी बात की अदा

हर एक घंटे पर गर्मी और अंधेरे से तरबतर होना
लो क्वालिटी मोमबित्तयों की शौपिंग
माचिसों का खोना
हर दूसरे दिन रंगबिरंगे लाइटर खरीदना

चीनी मिट्टी के अनोखे प्याले
हरी केतलियाँ
कांजी आंखों के चायवाले
पकी हुई चाय

156- जी का खुला माहौल
घर का रास्ता याद करना
वहाँ से न निकलने की चाह
मादाम हाशमी का प्यारा सा आलिंगन
राशिद बशीर से बस की टाइमिंग सेट करना
ओएतोवाले से कम होते रेट

अंबर रंग का गोलगप्पे का पानी
हर फूटा गोलगप्पा
गिन चुने चने के दाने
25 रुपए प्लेट
12 फूटी पूरियां

अनारकली के गेट पर आइस सेवर
सतरंगी चाशानियाँ
पान चबाते मुस्टंडे
मूंछों की ताव

अआधी रात के रिक्शे
टूटे फूटे ग़मगीन
कतार पटर की आवाज़
खरोंचते नोचते टीन के टुकडे
पती हुई सी सीट
80 की स्पीड का रोमांच
उछल उछल कर रिक्शे का चलना
सरों पर लगती चोट
सलियों पर उलझते बाल
नारंगी अमरूद का बगान
स्ट्रोबेरी के खोमचे
फालसे पर फैले गोंद के निशान
जामुनों की चमक
आड़ू के मखमली खोल
मंहगे केले
काली चेरी से जड़े पेपर के डब्बे
फालसे का ठंडा खट्टा जूस
आनार के ज्यूस में इस्मत के अफसानों की यादें

http://www.vidhaatwork.blogspot.com/

बिल्ली, उसके बच्चे और तोषी, कोशी

कल अचानक तोषी ने बताया कि बिल्डिंग की सीढ़ी के कोने पर बिल्ली ने बच्चे दिए हैं। फ़िर कोशी ने भी बताया और कहा, चलो देखने। देखा, पूरे मातृत्व भाव में पगी हुई बिल्ली। चार बच्चे उसने दिए थे। चारो माँ के दूध में मुह घुसाए पड़े थे और माता राम आराम से बेफिक्र हो कर बच्चों को लिपटाए हुई थीं। बचपन में माँ कहती थी कि बिल्ली अपने बच्चे को मुंह से पकड़ सात घर घुमाती है। कई बार इस दृश्य को देखा भी था। अब ऐसा है या नहीं, पता नहीं। लेकिन कोशी उसकी फ़िक्र में लगी रहती है। अभी वह १५ अगस्त के कार्यक्रम के लिए डांस का अभ्यास कर रही है। लौटते में सीदी से आई या लिफ्ट से, यह तो मालूम नहीं, मगर आकर कहने लगी, "बिल्ली के लिए कुछ खाना है? उसका खाना ख़तम हो गया है।" मिट्टी का एक बर्तन उसके हाथ में था। उसके लिए वह दूध -रोटी लेकर गई। जानवरों और बच्चों से उसे कुछ ज़्यादा ही लगाव है। अभी बच्चों के रोएँ आने शुरू हो रहे हैं। अभी उसके रोजा दिन के किस्से शुरू होंगे-बिल्ली व् उसके बच्चों को लेकर। मैंने देखा है, जिन बच्चों का घरेलू जानवरों के साथ लगाव रहता है, उनमें बहुत सी परिपक्वाताएं आती हैं, समझदारी व् संवेदनशीलता अधिक होती है। अपनी दिक्कतों के कारण हम जानवर तो नहीं पाल सके। तोषी भी बचपन में इसके लिए काफी इसरार करती रही थी। हालात ने हमें इसकी इजाज़त नहीं दी, मगर जैसे हमने कभी भी इन्हें दूसरी माताओं की तरह मिट्टी पर, मिट्टी से खेलने से रोका नहीं, उसी तरह कभी जानवरों के साथ दोस्ती करने से भी नहीं रोका। आज दोनों ही अपनी अपनी जगह इतनी संवेदनशील हैं। इसका कुछ तो श्रेय इन मूक जानवरों को तो देना ही होगा।

तिन्नी की आत्मकथा

शनिवार रात तिन्नी एक कैलेंडर ले आई। कहा कि इसमें तुम लिखो और मैं बोलती रहूंगी कि तिन्नी क्या क्या करती है। ऐसा करने का ख़्याल कहां से आया भगवान जाने लेकिन तिन्नी की बातों को जब मैं कैलेंडर के पीछे लिखता तो देखकर हैरान हो जाती। वो हिंदी के लंबे लंबे वाक्यों को अचंभे से देखती और कहती कि इतनी छोटी सी बात इतनी लंबी लिखनी होती है। धीरे धीरे उसकी बातें साढे चार साल की उम्र में ही तिन्नी की आत्मकथा बन गई। मैं उसकी तमाम बातों को यहां पेश कर रहा हूं। तिन्नी जिस तरह से बोलती रही उसी तरह से वाक्य बनते गए।

१. मम्मी को तिन्नी बहुत तंग करती है।
२. तिन्नी ने उस दिन विशु के साथ कमरा गंदा कर दिया था।
३.तनिमा बदमाशी करती है। (तनिमा तिन्नी का ही नाम है)
४.तनिमा ज़्यादा खेलती नहीं है।
५. तिन्नी मम्मी के लिए रोती है।
६. तिन्नी नहाने में बहुत तंग करती है।
७. तिन्नी को टब में नहाना अच्छा लगता है।
८. टब में ज़्यादा पानी होने से डूब गई तो?
९. तिन्नी बस से स्कूल जाएगी लेकिन बस बहुत भोर बेला आती है। तिन्नी उठ नहीं पाती है।
१०. तिन्नी सोना नहीं चाहती है।
११. तिन्नी वैशाली में रहती है।
१२. तिन्नी और विशु की कल शादी होगी।( विशु उसकी बहन भी बन जाती है)
१३. उसके बाद हम दोनों परी हो जाएंगे।
१४. तिन्नी गोवा गई थी।
१५. तिन्नी घड़ी में टॉम एंड जेरी का टाइम देखती है।
१६. जैसे ही टाइम होता है पापा से रिमोट छीन लेती है।
१७. मम्मी से टाइम पूछ लेती है।
१८. तिन्नी बहुत एसी चलाती है।
१९. पंखा चलाना ही नहीं चाहती।
२०. पापा तिन्नी को घूमाने ले जाते हैं।
२१. इतनी छोटी सी बात इतनी लंबी लिखनी होती है।
२२. मार्निंग में तिन्नी उठना नहीं चाहती।
२३. नाइट में तिन्नी सोना नहीं चाहती।
२४. स्कूल के टाइम में तिन्नी गजब हो जाती है।
२५. तिन्नी लाठी से खेलती है।
२६. टीवी में बहुत ज्यादा गेम चलाती है।
२७. स्कूल में सोने के टाइम में जगी रहती है।
२८. तिन्नी ने प्रणब भइया के साथ उस दिन खूब बदमाशी की थी।
२९. तिन्नी १२३ नहीं लिख पाती।
३०. खेलती रहती है पढाई ही नहीं करती।
३१. पापा बेस्ट फ्रेड नहीं है। ब्वाय लोग बेस्ट फ्रेड नहीं होते।
३२. पापा इस लाइन को काट दो। ठीक नहीं है।
३३. तिन्नी के पापा बाबाजुली भोजपुरी बोलते हैं।
३४. तिन्नी का सर खराब है।
३५. तिन्नी डांस करती है।
३६. तिन्नी ज्यादा पानी नहीं पीती है।
३७. पापा पेन से लिखने नहीं देते।
३८. तिन्नी रो रोकर पूछती है पापा घर क्यों नहीं आ रहे हैं?
३९. दादा जी ठाकुर जी के पास चले गए हैं।
४०. आजकल दादी बहुत रोती है।
४१. एक दिन कंप्यूटर खराब हो गया।
४२. तिन्नी बहुत फोटोग्राफ देखती है।
४३. मधुमिता दीदी तिन्नी को बहुत मारती थी।
४४. कंप्यूटर में तिन्नी काम करती है।
४५. बड़ी मम्मी,बड़े पापा,दादा जी,दादी जी,तृषा दीदी,
छोटी दीदी,नाना जी,नानी जी,पापा जी दी,मम्मी जी,श्योन,विशु,अमित भारती,
डैड्स,मॉम्स।

तिन्नी का तमाचा

बच्चे अपने बचपन में मां बाप की खूब पिटाई करते हैं। मरता क्या न करता इस पिटाई पर अपमानित होने के बजाए भावुक हो जाता है। सुबह सुबह तिन्नी बाज़ार जाने के लिए ज़िद करने लगी। मुझे भी कुछ ख़रीदना है। अंडा ब्रेड के साथ उसने सेंटर फ्रेश और मेन्टोस भी खरीदे। घर आकर सोचता रहा कि सेंटर फ्रेश खाने की आदत कहां से पड़ गई। तभी तिन्नी आई और कस कर एक तमाचा रसीद कर दिया। इससे पहले कि झुंझलाहट पितृतुल्य वात्सल्य में बदलती तिन्नी ने ही ज़ाहिर कर दिया। देखा बाबा मेन्टोस खाते ही मैं किसी को भी तमाचा मार सकती हूं। मेन्टोस में शक्ति है। ज़रूर ये विज्ञापन का असर होगा। विज्ञापन में शक्ति प्राप्त करने की ऐसी महत्वकांक्षा तिन्नी में भर दी कि ख़मियाज़ा मुझे उठाना पड़ा।

आज उदास है किलकारी

आज किलकारी उदास है. उषा गांगुली शिशु विहार (शायद यही नाम है दिल्ली युनिवर्सिटी वाले प्ले स्कूल का) में आज उसका दाखिला होना था. पिछली रात अवनि के पापा और मेरे दोस्त शीतल फ़ॉर्म ले आए थे. आज सुबह उसे भरा गया, किलकारी का पासपोर्ट साइज़ का फ़ोटो चिपकाया गया उस पर. फिर किलकारी, चन्द्रा और मैं चले उषा गांगुली ... अंदर जाने पर पता चला आज पहला शनिवार है, पहले शनिवार को छुट्टी होती है. किलकारी को जब यह मालूम हुआ कि आज उसका ऐडमिशन नहीं होगा तो वह बहुत दु:खी हुई. पूछी, 'फिर कब होगा मेरा ऐडमिशन?' किसी तरह उसे बहला-फूसला कर वापस घर ले जाना पड़ा.
आज सवा तीन साल की हो गयी है किलकारी. जब वह डेढ साल की थी तभी से क्रेश जा रही है. अब उसे क्रेश में मज़ा नहीं आ रहा है. पिछले कुछ महीनों में उसकी दोस्ती का दायरा और दोस्तों की संख्‍या, दोनों में इज़ाफ़ा हुआ है. नए बने दोस्तों में से कई नियमित स्कूल में जाते हैं. अब किलकारी को यह ठीक नहीं लगंता कि उसके दोस्त स्कूल जाएं और वो अपनी कॉलोनी वाले क्रेश में.

पिछले हफ़्ते एक दिन अपने चाचा के साथ सुबह-सुबह क्रेश जाते समय उसने आसमान सर पर उठा लिया. कहने लगी, 'मुझे नव्या दीदी वाले स्कूल में जाना है.' नव्या ठीक एक रोज़ पहले अपने मम्मी-पापा के साथ आयी थी हमारे घर. उस दिन हमलोगों ने नव्या के स्कूल के बारे में पूछताछ की थी. बस, ये बात किलकारी को याद थी और सुबह-सुबह उसने बग़ावत कर दी.

बहरहाल, अब स्कूल में उसका नाम अदीबा सत्या होगा.

कोशी की सफलता और उसकी संवेदनशीलता

हमारी आशा के विअपरीत कोश्य्य १०वी के इम्तहान में ७६% अंक लाई। उसके खिलानादाद स्वभाव ने मुझे बहुत दारा रखा था। उसकी यह अप्रत्याशित सफलता हम सभी को अभिभूत कर गई। कहने को आज के अंक आधारित जगत में ७६% का कोई महत्त्व नही, मगर हमने कभी भी अपने बच्चों को अंकों की होड़ में जाने देना नही चाहा। बस यह चाहा की वे आगे बढें, कुछ करे, और इसके लिए पढाई ज़रूरी है, सो वे पढ़े। तोषी ने तो ख़ुद को बेहद अच्छे से स्थापित कर लिया है, अब कोशी के सेटल होने की बात है।
उसकी सफलता के साथ-साथ उसकी संवेदनशीलता भी गौर कराने वाली है। नौन्वेज खाने में उसकी जान बसती है। यह गुन बच्चों में अजय से आया है। लेकिन कल जब घर में मछली बनी, तो कोशी ने खाने से इनकार कर दिया। पूछने पर बताया की बारिश में मछली नही कहानी चाहिए, क्योंकि यह उसके ब्रीडिंग का समय होता है। एक मछली को खा जाने से न जाने कितनी मछलियों को संसार में आने से हम रोक देते हैं।
समय-समय पर इस तरह की कई बातें हामी चुंका देती हैं। मुझे लगाने लगता है की अब वह बड़ी हो गई है और समझदार भी। संवेदना आगे भी उसकी बनी रहे, उसकी ही नहीं, बल्कि सभी की बनी रहे, यह कामना है।

अपने ही देश में सांस्कृतिक झटके झेल रही तोषी

कल तोषी लाहौर से लौट आई- दिल्ली। दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक आम औपचारिकता की ठस रुई मी सने स्वागत वचन से उसका भी स्वागत हुआ। आने से पहले कुछ तकनीकी कारणों से उअसके अन्य दोस्त नहीं आ सके। इससे वह दुखी तो थी ही। सारे समय विमान में बैठकर रोंती आई। दोस्तों, जगह, वहाँ के लोगों से बिछड़ने के गम के साथ- साथ अचानक घटी यह घटना। इमाग्रेशन चेक के बाद उसके पास फोन नईं रह गया था, वहां के लोकल फोन न होने के कारण। उसने एकदम से बाल हठ की कि अपने इन दोस्तों से बात किए बिना वह विमान में बैठेगी ही नही, और हैरानी भरी खुशी यह कि उसकी यह इच्छा पीआईए यानी पाकिस्तान इन्तारानैशानल एयर लीं के अधिकारियों ने पूरी की।
दिल्ली हवाई अड्डे पर भी उसकी यही पुकार रही कि मुझे दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर नहीं, लाहौर के अलामा इकबाल हवाई अड्डे पर उतरना है। यह एक सान्स्क्रिय्तिक मांग है। मुझे पता नहीं कि भारत का कोई हवाई अड्डा देश के किसी भी साहित्यकार के नाम पर हो। मफ्गर पाकिस्तान में ऐसा है।
दिल्ली में आने के बाद यहां के लोगों की बात-चीत के टोन से उसे लगात्तार झटके डर झटके लग रहे हैं। वह यही कहती फ़िर रही है कि "कर लेते हैं भैया, इसमें इतना चीखने की क्या ज़रूरत है। ज़रा प्यार से तो बोलो।" यह प्यार बाहरी बोली अब वह मिस कर रही है। वहाँ का ऍम आदमी भी अपने लहजे में पूरादाब व कायदे बरतता है। ऑटो, तैक्सीवाले, भी 'आयें,' बैठें, देखें, करें, बिटिया से संबोधित करता है। सबसे पहले शहर में घुसते ही उसके मुंह से निकला- "उफ़, कितनी गंदगी है?' मैं हंस पडी। अभी उसका मुम्बई आना बाक़ी ही है।
यह सब अपने देश को कमतर करके आंकने की कोअशिश नहीं है। यह चंद वे बातें हैं, जिनसे हमारा -आपका जीवन रोजाना प्रभावित होता है, फ़िर ये ही बातें हमारी आम आदतों में तब्दील हो जाती हैं। तोषी को फ़िर से यहाँ के जीवन के अनुसार ढलना होगा। मगर जहाँ कहीं भी उसे वहाँ की बेहतरी नज़र आयेगी, उसके मुंह से उफ़ तो निकलेगा ही- हमारी-आपकी तरह- सहज, सामान्य।

तोषी -कोशी को समर्पित यह पुरस्कार

आज तोषी अपने ९ महीने की पाकिस्तान -पढाई की मियाद पूरी करके भारत लौट रही है। उसके स्वर में एक साथ देश लौटने की खुशी व उत्तेजना है तो दूसरे स्वर में वहां के लोगों से बिछड़ने के गम भी। लाहौर में उसे इतना प्यार, सम्मान, मिला, जितने कि हमने कल्पना तक न की थी। उसकी दीन सलीमा हाशमी ने मुझसे कहा यहा कि "आप अपनी बेटी को हमें वक्फ में दे दीजिये।'' ९ महीने के दरमियाँ उसके २ एकल और ३ ग्रुप शो हुए। उसके काम के लिए उसे वहाँ के पंजाब के गवर्नर द्वारा सम्मानित किया गया। अपने शो के दुरान अपने काम को लेकर वह प्रेस और मीडिया में छाई रही।

आज वह लौट रही है और अज ही मुझे एक ड्राइंग प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला। चित्र बनाना मुझे आता नहीं, लेकिन उसेदेखके जो थोडा बहुत समझ पाई, उसमें धर दी कोशी ने। आज जब यह पुरस्कार ले रही थी, तो दोनों बहनें मेरे तसव्वर में थीं। आम तौर पर लोग कहते हैं कि माँ-बाप से बच्चों की पहचान बनाती है। लेकिन मुझे यहाँ यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि यहाँ , आज मेरी पहचान मेरी तोषी, कोशी के कारण बनी है। कोशी ने ही बताया कि मुझे कैसे चित्र बनाना चाहिए और उसकी राय पर मैंने अमल किया। यह पुरस्कार मेरा नहीं, उन दोनों का है।

इस साल के कुछ संयोग रहे हैं कि एक साथ, एक ही दिन दो-दो अहम् घटनाएँ होती रही हैं।- मेरा जन्म दिन और अजय को पुरस्कार, हमारी शादी की २५वीन् सालगिरह और तोषी को पुरस्कार और आज उसका लौटना और मुझे पुरस्कार। इस संयोग को नमस्कार और तोषी व कोशी के लिए यह इनाम।

बेटी को मोटरसाइकल चाहिए

मैं वहाँ गया; जो पता पिछली पोस्ट में दिया था.

चौंक पूरे गए थे. जगह-जगह बंदनवार बंधे थे. बेटी का जन्मदिन था. ज़्यादा तफसील में जाने की जरूरत मैं नहीं समझता. बस इतना ही कि उद्दी को ग्रामीण क्षेत्र में हिन्दी माध्यम से भी पढ़ते हुए आठवीं कक्षा में ९० प्रतिशत अंक मिले हैं. यह सारे सर्वेक्षणों से कहीं अधिक है.... और मध्य प्रदेश में आठवीं अब बोर्ड नहीं रहा इसलिए इसे उदारता न समझा जाए. वह पांचवीं में ९५ प्रतिशत अंकों से पास हुई थी जो कि बोर्ड था.
माफ़ कीजियेगा, बेटी की बात है इसलिए गर्व हुआ।

आते-आते बेटी से मैंने पूछा कि तुम्हें क्या चाहिए? बेटी ने कहा कि पिछली बार उसे जो साइकल दिलाई थी वह नाकाफी है, अब उसे मोटरसाइकल चाहिए। बाप तो कभी बैठा नहीं, अब मैं उसे मोटरसाइकल दिलाने के जुगाड़ में भिड़ा हुआ हूँ.

गांव में श्रावणी, पहली बार पमरिया का नाच



















मैं कुछ गीतों की खोज में बगल के आंगन में गया था। होलिकांक के पुराने रजिस्‍टर पर दर्ज गीतों में से कुछ मेरी पसंद के मिल जाते, तो बचपन की कहानी कहना ज़्यादा आसान हो जाता। एक गीत तो ख़ैर गांव में सबको याद है - बगल में बाकरगंज बजार, चुनरिया लागे बूटेदार। इसे मंत्रीजी ने लिखा था, जिनका असल नाम था इंद्रनारायण। इनके बेटे कृष्‍ण कुमार कश्‍यप ने मिथिला पेंटिंग को दलितों के बीच लोकप्रिय बनाया। ख़ैर, रजिस्‍टर तो मिला नहीं, लेकिन उस आंगन की बहनों ने मुझे बिठा लिया।

मेरी बड़ी बहन की दोस्त गोरकी (इसी नाम से हम बचपन से उसे जानते हैं... बहुत गोरी होने की वजह से ही पड़ा होगा...) ने कहा, 'दोपहर तुम्‍हारे यहां पमरिया नाच हुआ क्‍या?'
मैंने कहा, 'हां।'
'पर किसके लिए?'
'मेरी बेटी के लिए'
'पर इस गांव में तो कभी बेटियों के पैदा होने पर पमरिया नचाया नहीं गया!'

गोरकी दीदी सही कह रही थी, लेकिन मुझे पहले मालूम नहीं था। दोपहर जब पमरिया हमारे आंगन आया, तो बाबूजी के तेवर कड़े हो गये। उन्‍होंने कहा कि खानदान में कभी बेटी के लिए पमरिया नहीं नाचा, इसलिए आपलोग बैरंग लौट जाइए। लेकिन मधुबनी के रांटी ज़‍िले से चल कर आया पमरिया इस तरह जाने को तैयार नहीं हुआ। कहा, जो इच्‍छा हो, वो दे दीजिए, लेकिन इस तरह मत लौटाइए। लेकिन बाबूजी पांच रुपये देने को तैयार नहीं हुए।

मैं भीतर के आख़‍िरी कमरे में श्रावणी को गो‍द में लिये था, जब ये बाबूजी के साथ पमरिया संवाद मेरे कानों तक पहुंचा। छोटे चाचा भी मेरे पास ही थे। मुक्‍ता भी थी। हम सब बुलबुल की शादी में गांव गये थे। हम तीनों ने कहा कि बेटी के लिए पमरिया नाच अब तक नहीं हुआ, उससे क्‍या। जब वो आया है, तो नाचेगा।

पमरिया जम कर नाचा। हमारी भाभियां नाचीं। चाचियां नाचीं। बुआ-फूफा-भाई-गोतिया सब नाचे। पुराने सन के गानों से लेकर मॉडर्न रीमिक्‍स तक गाया गया। आख़‍िर में बाबूजी ने भी फ़रमाईश की और मोती पमरिया ने उन्‍हें उनकी पसंद का गाना सुनाया।

मुझे तो इस बात की खुशी थी कि गांव के इतिहास में पहली बार बेटी के पैदा होने पर पमरिया नाचा। तीन महीने की श्रावणी पमरिया की गोद में थी और मुझे अपने आप पर गर्व हो रहा था।

इस बच्‍ची को दुआएं दीजिए

शायदा दैनिक भास्‍कर के चंडीगढ़ संस्‍करण में न्‍यूज़ एडिटर हैं। बेटियों का ब्‍लॉग के लिए मीडिया अवॉर्ड लेने जब मैं चंडीगढ़ गया था, तो उनसे मुलाक़ात हुई। तब रजनीगंधा के साथ उनके रिश्‍ते और बात करने के उनके अंदाज़ ने मुझे बहुत आकर्षित किया था। एक अधूरा बना हुआ ब्‍लॉग भी उन्‍होंने मुझे दिखाया - और जब उसकी पहली पोस्‍ट लोगों ने देखी - तो ये भी देखा कि अख़बार में ख़बरों की बेहिसाब भीड़ और आमफ़हम शब्‍दों के बीच उनके पास संवेदना और भाषा की मुलायमियत कितनी गहराई से मौजूद है। आज उन्‍होंने दो चीजें हमें भेजीं। मोहल्‍ले में भाषा की बहस के बीच अपनी स्‍वीकारोक्ति, और यह ख़बर ख़ास बेट‍ियों के ब्‍लॉग के लिए।
बच्‍ची के रोने की आवाज़ ने प्रार्थना को बीच में ही रोक दिया। सिस्‍टर एलिस ने बाहर आकर देखा, पालने में कोई एक बच्‍ची छोड़ गया था। शनिवार की शाम के अंधरे में इस बच्‍ची को मां की गोद और ममता से बेदख़ली मिली। सिस्‍टर ने बच्‍ची को गोद में उठाया और गले से लगा लिया। प्रार्थना पूरी हो चुकी थी। इस बच्‍ची को दुआएं दीजिए कि उसकी बेदख़ली जल्‍दी से जल्‍दी खत्‍म हो। वो अपने हिस्‍से की लोरियां और गोद पा सके। उसके लिए भी कोई गा सके- मेरे घर आयी एक नन्‍हीं परी!
(नोट : चंडीगढ़ में सेक्‍टर 23 मदर टेरेसा होम के मेनगेट पर एक पालना रखा है। अक्‍सर देर शाम या रात के अंधेरे में वहां लोग ऐसे बच्‍चों को छोड़ जाते हैं जो किसी न किसी तरह उनके लिए अनवांटेड होते हैं। यहां इन बच्‍चों को एडॉप्‍ट किया जाता है।)

मुझे लोहार के घर ब्‍याहना!

प्रसून आम तौर पर गीत लिखते हैं, विज्ञापनों के लिए कैचवर्ड लिखते हैं और मीडिया-सिनेमा पर भाषा की बहसों में हिस्‍सा लेते हैं। एनडीटीवी इमैजिन के धूम मचा दे कार्यक्रम में वो ज्‍यूरी मेंबरानों में से हैं। एक दिन धूम मचा दे के मंच पर उन्‍हें माइक थमा दी गयी। उन्‍होंने एक गीत सुनाया। यह लोगों के लिए प्रसून का पहला स्‍टेज परफॉरमेंस था। गीत में बेटी पिता से कहती है - मुझे राजा के घर मत ब्‍याहना, राज-काज मैं कुछ भी नहीं जानती। मुझे सोनार के घर मत ब्‍याहना, गहने-ज़ेवर मुझे पसंद नहीं। मुझे लोहार के घर ब्‍याहना ताकि वो मेरी ज़ंजीरें काट सके। मुझे मेरी सहयोगी गरिमा ने इस गीत के बारे में बताया और फिर कई साथियों ने कहा कि इसे बेटियों के ब्‍लॉग पर डालो। मैं उन सबका आभारी हूं, जिन्‍होंने प्रसून जोशी के गाये गीत को आप सबसे और अपनी बेटियों से साझा करने के लिए उत्‍साहित किया।

नन्हीं-सी कली मेरी लाड़ली

भाई, अविनाश ने एक प्रश्न पूछा था और उसके जवाब में मैंने सिर्फ़ 'हाँ' कहा था। यह उनका मुझ पर उपकार, भरोसा और अतिबड़प्पन ही कहा जायेगा.

कई दिनों तक सोचता रहा कि क्या लिखूं बेटियों के ब्लॉग में। कहीं और तो लबार-पछार लिखा जा सकता है लेकिन बेटियों के ब्लॉग में? न रे न!

रहीमदास का एक दोहा है-

'रहिमन अंसुआ नयन ढरि, जिय दुःख प्रकट करेय,
जाहि निकारो गेह ते कस न भेद कहि देय'।

'बेटियों के ब्लॉग' ने आँख से आंसुओं को कई बार निकलवाया है।

बहुत हिचकिचाहट के बाद यह पोस्ट इसलिए है कि ब्लॉग का सदस्य बनने के बाद अपनी तरफ से लंबे समय तक इसे सूना क्यों रखूँ।

कल दोपहर फोन पर बेटी उदिता से मेरी लम्बी बात हुई। मैं बेटी से फोन करते हुए भी डरता हूँ। डरता बेटी से नहीं, इस बात से हूँ कि कहीं उसके मामा लोग उसके ख़िलाफ़ न हो जायें। वैसे वे लोग उससे मोहब्बत करते हैं और मुझसे नफ़रत. उनके मन में थोड़ी ग़लतफहमियां हैं और कुछ घमंड।

बड़ी बात ये है कि बेटी भी यह बात समझती है. इसलिए किसी की पदचाप सुनते ही वह फोन रख देती है. भले ही उसके नाना की बिल्ली ही पीछे से क्यों न उससे मोहब्बत करने आयी हो.

मैं भाई निलय उपाध्याय का ऋणी हूँ। उन्होंने मुझे यह नाम तब सुझाया था जब मेरी बेटी बमुश्किल 9 दिनों की थी. मैंने ज्ञानरंजन जी से कोई बढिया नाम सुझाने को कहा था तो उन्होंने बिल्कुल सही ही कहा था- 'विजय जल्द ही अपनी या सुमन की पसंद का नाम रख लो वरना तरह-तरह के नाम चलने लगते हैं.' उसी दौरान भाई निलय एक काव्य-पाठ के सिलसिले में मुम्बई आए थे और ज़िक्र छिड़ने पर कहने लगे कि शमशेर के एक काव्य-संग्रह का नाम है 'उदिता'. उन्होंने कहा कि वह नाम मैं रख लूँ वरना जब उनके कोई बेटी होगी तो वह रखेंगे. मैंने तुरंत वह नाम झटक लिया था.

मेरी वह कविता 'बेटी हमारी' अविनाश ने चढ़ाई थी उसे पढ़ कर घुघुती बासूती जी के रोएँ खड़े हो गए थे.
अब समाजशास्त्री पता लगाएं कि ऐसा क्यों है?

इसी २३ मई को उद्दी का जन्मदिन है। मैं तो जा ही रहा हूँ. जो लोग उसे बधाई देना चाहें; कृपया इस पते पर दें-

कुमारी उदिता चतुर्वेदी, द्वारा/ श्री रघुवंश प्रसाद मिश्रा (पूर्व हेड मास्टर), ग्राम-बरहना (डडिया टोला), वाया-कोठी, जिला-सतना (मध्य प्रदेश).

तोषी और लाहौरियों का एक -दूजे के लिए बढ़ता मोह

जैसे -जैसे तोषी (विधा सौम्या) के लाहौर से लौटने के दिन नज़दीक आते जा रहे हैं, उसका जगह और वहाँ केलोगों का उसके प्रति मोह बढ़ता ही जा रहा है। तोषी अब यह सोचा कर नर्वस हो रही है कि अब यह शहर, यहाँ के लोगुससे छूट जायेंगे। वह कहती है, बंगलूर में ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वहाँ किसी से इस तरह के रिश्ते बने ही नहीं। पर यहाँ तो हर कोई उसे बेटी, बहन बना लेते हैं और इत्ता इत्ता प्यार देते हैं कि वह डूब सी गई है। अभी-अभी उसकी पहचान एक परिवार से हुई। वहाँ दो बच्चियां भी हैं- एक आठ साल की एक तीन साल की। छोटी तो उससे इतनी हिल मिल गई कि उसके लौटने के वक़्त उसने उसके बौग, चप्पल सब छुपा दिए, कमरा बंद कर दिया, जोर-जोर से रोने लगी और रोते रोते कहती जा रही थी-'विधा आंटी, आप मत जाओ, मैं दूध भी पी लूंगी, आपको गाने भी सुनाउंगी, आपको डांस भी दिखाउंगी। आप जो कहेंगी, करूंगी। बस आप मत जाएं। तोषी कहती है, मुझे अपना बचपन याद आ गया, जब उमा आंटी वगैरह आती थीं तो वह उनके बैग आदि छुपा देती थी। उसके पह्के सभी दरबान चाचा, रसोइया चाचा उअर बाकी सभी लोगों की उससे शिकायत है कि आपने अपने अम्मी- अब्बू से हमारी मिलाकात नहीं करवाई। हमने उनके लिए ये बनाकर रखा था। हम उन्हें अपने घर ले जानेवाले थे। हम उनके साथ बातें करना चाहते थे। वह इन सबकी बातों औ उनके स्नेह में भीगती जा रही है। कहीं नहीं लग रहा कि यह दो ऐसे मुल्कों के बीच वाक़या हो रहा है, जो सियासी रूप में हमेशा एक दूसरे को शक के दायरे में घेरे रहते हैं। यहाँ तो बस दो ज़ज्बातों का मिलन है। मैं सलीम हाशमी ने पहले ही हमसे कहा कि इसे हमें वक्फ में दे देन। वार्डन घजाला कहती हैं तोषी से कि तुम हमें सारी पहनना सिखाओ। उसके कमरे की सफाई करनेवाली बाजी अपने लिए सादियाँ पाकर बेहद खुश हीन और दुआओं की झाडी लगा दी।
यह सब ऐसे देश में हो रहा है। जी हाँ, हमें खुशी और गर्व इस बात का है कि तोषी कम से कम एक इतिहास आर्च रही है, अपने काम के साथ अपने रिश्ते कायम कराने का, एक प्यार, मुहाबत भरा ज़ज्बा बनाने का। इतिहास में बेशक उसका नाम दर्ज न होगा, पर उसे और हमें भी इस बात का सुकून मिलेगा कि हमने मुहब्बत के चाँद बीज बोये हैं। इन बीज से इंशा अल्लाह अमन और भाईचारे के फूल खिलें और सारा चमन इनकी खुसब्हू से महक उठे। आमीन।

कोशी को पसंद आई बी मूवी


बी मूवी एक एनीमेशन फ़िल्म है.कोशी की छुट्टियाँ चल रही हैं.विमल भाई वह भी पंचमी की तरह बोर हो रही हूँ का पहाड़ा पढ़ती रहती है.बहरहाल एक दोस्त से मैं बी मूवी फ़िल्म लेकर आया और उसे देखने के लिए दिया.इस फ़िल्म की शुरूआत में बताया जाता है कि उड़ान के नियमों के मुताबिक मधुमक्खी उड़ नहीं सकती.उसे डैने छोटे होते है और उसके अनुपात में उसका शरीर भारी होता है.उसका उड़ पाना असंभव है.लेकिन मधुमक्खी इस बात की परवाह नहीं करती कि इंसान उसके बारे में क्या सोचते हैं?वह मजे से उड़ती है और अपने सारे काम करती है.पेड़ और जंगल कट रहे हैं तो क्या.वह ऊंची इमारतों के छत्ते के नीचे अपना छत्ता लगा देती है.ठीक ऐसी जगह कि आप मधु न निकाल सकें।

बहरहाल यह फ़िल्म मधुमक्खियों के बारे में है.बैरी बी बेंसन अभी-अभी स्नातक हुआ है.उसे बताया जाता है कि अब वह शहद बनाने के काम के योग्य हो चुका है.बैरी सोचता है कि ज़िंदगी भर शहद बनाने में कितनी बोरियत होगी.वह मधुमक्खियों की दुनिया से बाहर निकलता है और इंसानों की दुनिया में आ जाता है.उसे यह अजीबोगरीब दुनिया विचित्र लगती है,जहाँ हर इंसान उसे मारने के लिए तैयार है.वह भागता फिरता है.एक घर में वनेस्सा उसकी जान बचाती है. दोनों की दोस्ती होती है.शहर में घुमते हुए बैरी देखता है कि इंसान उसकी प्रजाति की मेहनत का व्यवसाय कर रहे हैं.अलग-अलग किस्म के पैकेज बना कर शहद का कारोबार करता है.बैरी तय करता है कि वह इंसान की इस चोरी और सीन्जोरी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएगा.वह इंसान के ख़िलाफ़ मुक़दमा कर देता है.लम्बी बहस चलती है.मधुमक्खी के वकील अपने तर्क देते हैं।

आखिरकार जज मधुमक्खियों के पक्ष में फैसला देते है और इंसानों से कहा जाता है कि वे शहद वापस करें।

यह फ़िल्म बेहद रोचक है.मौका मिला तो आप सभी अपनी बेटियों के साथ इसे देखें.हाँ,प्लीज बेटों को भी साथ में बैठने दें.

ब्‍लॉग बेटियों का, ख़बरें बेटियों की

लाडली मीडिया अवार्ड्स मिलने के बाद ये प्रोमो एनडीटीवी इंडिया ने तैयार किया है। इसकी परिकल्‍पना और एडिटिंग हमारे सीनियर सहकर्मी संदीप बलहारा ने की है। ये प्रोमो बेटियों के ब्‍लॉग के तमाम दोस्‍तों-पाठकों-मेंबरानों को समर्पित है।
ये प्रोमो अगर आप डाउनलोड करना चाहते हैं, तो नीचे के बॉक्‍स पर धावा बोलें।

छादी नहीं शादी


दो-तीन रोज़ पहले अशोकनगर गया था. बात हुई थी गुडिया से. उसके साथ बाज़ार जाना था. वहां आजकल एक साथ कई काम हो रहे हैं जैसे कि अन्य शादी-ब्याह वाले घरों में. चुने-पोचारे से लेकर दीवार की पाइटिंग-प्लास्टर तक, काम जारी है. कुछ चीज़ें बिल्कुल नयी लगायी/सजायी जा रही हैं. मेहमानों को जो आना है! गुडिया तैयार थी. हम निकलने ही वाले थे कि नज़र बिस्तर पर पड़े गुलाबी लिफ़ाफ़े पर पड़ी. गुडि़या ने बताया 'गीता जीजी की शादी का कार्ड है, कल ही शाम को आया है.' खोल कर देखा. पहली पंक्ति के बाद ज्यों-ज्यों नीचे बढती गयी, मन कसैला होता गया. अंत तो करैले के रस समान ही लगा.

'मेरी मौछी की छादी में जुलुल-जुलुल आना'


ये गुजारीश किलकारी की तरफ़ से थी.

चलते हुए चन्द्रा से फ़ोन पर तय हो गया था विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पर मिलना. कमलानगर से खरीदारी निबटा कर हम तिमारपुर आ गए. मैं थोड़ी देर में किलकारी को क्रेश से ले आया. आते वक्त रास्ते में उससे बातचीत होती रही. उसे भी मालूम है कि उसके गीता मौसी की शादी है. मैंने जब दोहरा-तिहरा कर कहा छादी है न आपकी मौसी की तो उसने कहा, 'छादी नहीं शादी'. हां, जरूर स्पष्ट नहीं बोल पा रही थी वो. पर तय है वो जो भी बोल रही थी वो जुलुल या जुलूल नहीं था.
अबोध बच्चों की तरफ़ से ऐसे संदेश हमेशा से अटपटा लगता रहा है. आपको नहीं लगता कि नादानियों की शोकेसिंग करने चला ये समाज दरअसल किसी और दिशा में निकल पड़ा है?
बहरहाल, किलकारी इस शादी को लेकर बहुत ख़ुश है और बेताब भी. जितनी बार उसके ननिहाल से फ़ोन आता है और वो तैयारियों के बारे में सुनती है, उसकी बेताबी उतने गुना बढ जाती है. पांच-छह दिन पहले कोर्ट से आते ही चन्द्रा ने बताया कि गीता और मेरी सासु मां के साथ वो भी गयी थी चांदनी चौक गीता के लिए साडियों की ख़रीदारी करने. सुनते ही किलकारी ने कहा, 'मेरे को भी ड्रेस दिला दो. अच्छा वाला दिलाना.' अदा के साथ गर्दन झटकते हुए और मुंह से एक अजीब से चूं की आवाज़ निकालते हुए कहती है, 'कारी तो डांस करेगी गीता मौसी की शादी में बापु के साथ, मम्मी आप करोगे न?'

एक गुज़ारिश, नारों के लिए नहीं है ये ब्‍लॉग

ये ब्‍लॉग हम कुछ साथियों ने इस मक़सद से शुरू किया था कि इसमें हम अपनी बेटियों के बारे में बातें करेंगे। उनकी छोटी से छोटी कहानियां आपस में शेयर करेंगे। बेटियों से संवाद करेंगे, ख़तो-किताबत के ज़रिये। ‘बेटी बचाओ’ जैसे नारों से अलग संवेदना की ऐसी पगडंडी पर चलने की कोशिश करेंगे, जिसकी घास पर हमारी बेटियों के पांव डगर-मगर करते हों। हमारे कुछ साथियों ने अच्‍छा-ख़ासा उत्‍साह दिखाया। ख़ास कर अजय ब्रह्मात्‍मज, विमल वर्मा, पुनीता ने। विभा जी की सक्रियता भी सलाम करने योग्‍य है - लेकिन मुझे लगता है कि उन्‍हें तोषी-कोशी के बारे में बात करनी चाहिए। आज ही जो उन्‍होंने लिखा है, अपने जीने का अधिकार चाहिए बेटियों को, या इससे पहले की भी कुछ पोस्‍ट, जिनमें अख़बारी कतरनों का हवाला देकर बेटियों के अधिकार की बातें गयी हैं, वैसी बातें एनजीओ और बहुत सारे अभियानों में कही जाती हैं। ये ब्‍लॉग ऐसे नारों के लिए नहीं है। ये हमारी अपनी ज़‍िंदगी के सुख-दुख साझा करने के लिए है - जिसका सिरा हमारी अपनी बेटियों से जुड़ता है। बाक़ी बातों के लिए सबका अपना निजी ब्‍लॉग तो है ही।

अपने जीने का अधिकार चाहिए बेटियों को

आप कहेंगे कि इस ब्लाग में मैं क्यों ऐसी बातें लिखने लगी हूँ। पर मुझे लगता है कि यह ज़रूरी है, इस ब्लाग के ज़रिये तो और ज्ज्यादा। आज ही एक ख़बर पढी कि एक लड़की को उसके पिटा ने इसलिए गोली मार दी, क्योंकि उसने प्रेम करके अपनी मर्जी से किसी दूसरी जाती के लडके के साथ शादी कर ली थी। गोली चूक गई तो उसने कुल्हाडी से उसके सिर, धड़ पर इतने वार किए कि उसकी वहीं पर मौत हो गई।
बेटियाँ क्या महज़ घर की इज्ज़त, आबरू, घर के नाम पर मर मिटने वाली एक जीव और एक दास्ताँ भर है, या वह इंसान भी है? उसे अपने जीने का, अपने जीवन पर सोचने का, अपना भला-बुरा जानने-पहचानने का हक है या नहीं? एक और जब दुनिया इतनी आगे बढ़ रही हाय, लड़कियां मिअथाकीय समय से लेकात्र अभी तक पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं, ऐसे में इस तरह की बातें हमारे मन को तोड़ती व झकझोरती हैं। हम समझ नहीं paate कि हम भारती मिश्र, द्रौपदी, सीता, कैकेयी, सुनीता विलियम, कल्पना चावला आदि को देखीं या वासना, अहम् और झूठी मान-मर्यादा का शिकार होती इन मासूमोंन को देखें। मैं इन उत्कर्ष बालाओं को देखते हुए भी इन मासूमों से नज़रें नहीं फेर सकती, यह कह कर कि यह तो होता ही रहता। है। कहीं ना कहीं हमें इस और बढ़ना ही होगा, इस मानसिकता के ल्हिलाफ आवाज़ उठानी ही होगी। बेटियों को अपने जीने का अधिकार चाहिए। यह उसकी मांग नहीं, उसका हक है। सससाद में ३०% का आरक्षण मानागेवाले इनदें। आम जीवन में आम बेटियों से उसका बचपन, उसकी खुशियाँ न छिनी जाएं। इस आम धरती पर की आम बेटियाँ इससे अधिक और कुछ नहीं चाहतीं।

बताएं, क्या करें बेटियाँ

इस ब्लाग को अवार्ड मिल गया। निमित्त मेरा एक लेख बना। बेटियों के गर्वीले माँ-बाप अपनी बेटियों के बारे में लिख रहे हैं। में भी उनमें से एक हू। ख़ुद भी बेटी हू। कभी कभी तो बेटी ही बने रहने का ऐसा जी चाहता है कि अपनी ही बेटी से माँ जैसे बर्ताव की उम्मीद लगा बैठती हूँ। मगर बेटी होने के कई अवसाद ग्रस्त और खून खुअला देनेवाले वाकयात कभी कभी यह सोचने पर मज़बूर कर देते हैं कि हम बेटी क्यों हुए?

आज ही एक अखबार में एक ख़बर है कि ४ साल की बच्ची को उस व्यक्ति से मुक्त कराया गया जो यह विश्वास रखता है कि कम उम्र की अक्षत योनी कन्या के साथ सम्भोग करके वे कई बीमारियों से मुक्ति पा सकते हैं। यह केवल इस भ्रम या रुधि ही नहीं, वरन नई व अनूठी खोज के लोलुप के द्वारा भी एअसी घटनाएँ सुनाने को मिलाती हैं। कई तथ्यों से, सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है दुध्मुम्ही बच्चियाम अपने ही करीबी और रिश्तेदारों की लोलुपता का शिकार होती रही हैं।

बच्चियां बिचारी क्या करें? वे जन्मना छोर देन, या जनम कर किसी कोने में मुंह छुपाये रहें। इन नन्ही बच्चियों का व्यवसाय करनेवालों के लिए यह एक दीर्घ कालिक निवेश हाय। कितना सही शब्द है न बाज़ार का यह। एक उपभोग की वस्तु में तब्दील होती बेटियाँ, अपने तन से, मन से नकार दी जाती हुई।

मेरे मन में यह सवाल आता है कि आख़िर कौन हैं ये लोग? क्या वे आकाश से टपक आए हैं या उन्हें भी किसी बेटी ने ही अपनी कोख मी धारा होगा, अपने कलेजे का खून दूध मी बदल कर पिलाया होगा। उनकी भी तो कोई बहन होगी, जो अपने भाई पर इस चरम आस्था के साथ कि संकट में वह उसकी रक्षा करेगा, उसकी कलाई पर राखी बांधती होगी। उसकी भी तो पत्नी होगी, जो एक पूरे समर्पण और विश्वास के साथ अपनी पूरी दुनिया छोड़ कर आई होगी। उसकी भी तो बेटी होगी, जो उसके ही अंश से जन्मी है। ऐसा भीषण कृत्य करते हुए क्या उनके मन में इन सबकी कोई छवि नहीं उभरती?

जेल में अपने काम के दौरान कई बार ये सवाल उठे। वहां के अधिकारियों से भी बातें कीं। वे सब भी इस बात पर सहमत थे किएक बार तो खून के अपराध को गलती का अंजाम माना जा सकता है, मगर रेप को नहीं। लोक पर काम करते हुए मिथिला कि एक लोक कथा इस आशय की मिल गई। उसी समय दिल्ली में एक घटना हुई थी, जिसमें पिटा व भाई द्वारा एक लड़की लगतार १५ दिनों तक पिसती रही। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने एक नाटक लिखा- 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' मोहन राकेश सम्मान इसे मिला है। मगर यह मेरे लिए नरक कि कल्पना से भी ज़्यादः भयावह है। एक बारकिसी से कहा था किबच्चे, ख़ास कर बेटियाँ कभी खोये ना। खोने से अच्छा है कि वे मर जाएं। मित्र को यह बात बुरी लगी थी। आप सबको भी बुरी लग सकती है, मगर ज़रा सोचिये कि हम उस बच्ची को कैसा जीवन दे रहे हैं, जो किसी और की हवस कया शिकार बने और उस पर भी हमारा समाज ख़ुद को सभ्य कहता रहे। यह कैसी दुनिया है। जब कभी इस तरह की ख़बर पर ध्यान जाता है, मन अकुलाने लगता है। आप सब बेटियों के बाप हैं। ऐसों को केवल समाज का कोढ़ या जंगली जानवर, मानवता कया हत्यारा आदि कह देने से काम नही चलेगा। सोचिये कि क्या किया जाए ऐसा, जहाँ हमारी बेटियाँ सुरक्षित रहें। उनके मन पर इस तरह की कोई छाप ना परे, जो उनके पूरे जीवन कू सोख कर रख दे।

आकार

बेटियों की ललाई

बेटियों कि आस्था,

बेटियों पर विश्वास

बनता है एक सहज पुल

अचानक जब बेटी अपनी दहलीज लाँघ पार कर अति है सात दरियाओं का अनंत उद्गार।

बेटियाँ जब होती हैं, मन मलिन कर लेते हैं

पर भर आती हैं आँखे,

जब पार कर लेती हैं वे सूरज की ऊम्चाइयां

बेटी को अब मन नही करता

बोलूँ उसे दुर्गा, सीता, सरस्वती

छोर चुकी है वह अब इन प्रतिमानों को बहुत पीछे

अपने यहाँ एक खली ग्लास है

जिसमे से छलकती है उसकी सूरत

कुछ पहचानी सी

कुछ कुछ अनजानी सी

मन कबतक धरे धीर

बेटियों का आगमन होता रहे जलस्दी ज़ल्दी

भरे वह अपनी हँसी से मान का अंचल,

पिटा का दामन

बहन की मुस्कान

भाई की बने जान

बेतिया अब सगार पुत्र भी नही

वे हैं अनंत आकाश

हर सीमा के आर-पार।

तेरी मम्मी चुडैल जैसी

विमल भाई ने पंचमी कि बात की तो एकदम से उसकी याद ताज़ा हो आई। टैब हम सब एक ही बिल्डिंग मी रहते थे। पंचमी बहुत ही छूती थी। वाट कोशी के साथ खेलती। उन दिनों शहर मी विशाल भारद्वाज कि फ़िल्म 'मकडी' लगी थी। उसमे शबाना आज़मी ने चुडैल की भुमिका निभाई है। हमने भी वह फ़िल्म देखी। पंचमी ने भी देख रखी थी। सो दूसरे दिन जैसे ही कोशी नीचे पहुँची, उसने कहा, 'अए कोश्य्य, तेरी मामी ना, मकडी की चुडैल जैसी लगती है।' पता नहीं, क्या संयोग रहा है कि लोग अक्सर मेरी शक्ल की तुलना शबाना से कर देते हैं। कोशी को यह मालूम है, इसलिए उसने हम सबको आ कर बताया। हम सब खूब हँसे। एकाध दिन बाद विमल भाई, तनुजा, पंचमी हमारे यहाँ आए, कोशी ने यह ज़िक्र cheedaa। पति-पत्नी तो एकदम से सकपका गए। आख़िर कोई किसी के सामने ही उसे चुडैल कहे तो... तनुजा तो लगी पंचमी को डांटने। मैंने कहा कि अरे, यह तो उसने सही कहा है, मई लगती ही हूँ, उस चुडैल जैसी। और आप यह तो देखिये कि इस बच्ची ने कितने शार्प तरीके से इसे पकडा है।' विमल भाई, झेन्पिये मत, बेटी की बात का मज़ा लीजिये। आज उसे देख कर, उसके बारे मी पढ़ कर एकदम से उसकी याद ताज़ा हो गई। यह प्रसंग भी याद आ गया। उसे हमारा ढेरों प्यार.

कल तोषी सेलिब्रिटी बन गई लाहौर में

कल तोषी का दूसरी प्रदर्शनी को बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली.काफी लोग आए और मीडिया से बात करते-करते थक गई.उसने बताया कि वह बहुत आह्लादित है.मैं भी खुश हूँ कि बेटी ने यह उपलब्धि हासिल की.हालांकि यह बेटियों का ब्लॉग है,लेकिन मुझे लिखते हुए खुशी हो रही है कि कल विभा रानी का रायपुर में शानदार शो हुआ.उन्होंने अपने नाटक का प्रदर्शन किया.उनकी कामयाबी भी एक बेटी की कामयाबी है.दो पीढियों की बेटियों की यह कामयाबी अच्छी लग रही है।
पेश है सुबह-सुबह तोषी की प्रदर्शनी पर छपी यह रपट:



Baji Nama tells a story on women's rights
Rabbia Arshad

LAHORE: A solo exhibition titled 'Baji Nama' by Vidha Saumya opened here by Safdar Aseff Ahmed Ali at the Niarang Art Gallery on Tuesday. Some 35 art pieces were put on display.Vidha Saumya is an Indian artist and came to Pakistan under the SAARC exchange programme. Talking to The Post, the artist said she had once been an admirer of a lady 'at my hostel. All my sketches are a tribute to her," she added.The exhibition revolves around the employment of a main theme, baji meaning elder sister. It is this character that inspires the artist wherein different postures, styles and gestures are drawn with poetic verses to add in detail to further illustrate the general idea.The medium used is pen alone on white paper to highlight the character. The work is said to be spell-bounding, to say the least.Scores of artists including Ambreen, Siama, Abid Khan, Michhoo, Shahid and Amad along with a good gathering of students all were present to view the work.Ambreen told The Post that the strokes and the lines 'are excellent, giving forth a strong effect.' "There is a story there. All packed in a serial form," she added while Abid Khan termed the work to be thought-provoking and centring on women's rights. He said the use of free hand technique paints a story of a woman entangled in typical cultural domestic troubles. The exhibition will continue till May 8.

बेटी हमारी

विजयशंकर चतुर्वेदी

मन ही मन हमने फोड़े थे पटाखे
बेटी, दुनिया में तुम्हारे स्वागत के लिए.

पर जीवन था घनघोर
उस पर दाम्पत्य जीवन कठोर.

फिर एक दिन भीड़ में खो गयीं तुम
ले गया तुम्हें कोई लकड़बग्घा
या उठा ले गए भेडिये.
लेकिन तुम हमारी जायी हो
कौन कहता है कि तुम परायी हो!

जब कभी खाता हूँ अच्छा खाना
तो हलक से नहीं उतरता कौर
किसी बच्चे को देता हूँ चाकलेट
तो कलेजा मुंह को आता है.

तुमने किससे मांगे होंगे गुब्बारे
किससे की होगी ज़िद
अपनी पसंदीदा चीजों के लिए
किसकी पीठ पर बैठ कर खिलखिलाई होगी तुम?

तुम्हें हंसते हुए देखे हो गए कई बरस
तुम्हारा वह पहली बार 'जण मण तण' गाना!
पहली बार पैरों पर खड़ा हो जाना!!

जब किसी को भेंट करता हूँ रंगबिरंगे कपड़े
तुम्हारे झबलों की याद आती है
जिनमें लगे होते थे चूं-चूं करते नन्हें खिलौने.

अब कौन झारता होगा तुम्हारी नज़र?
जो तुम्हें अक्सर ही लग जाती थी.
बाद में पता नहीं किसकी लगी ऐसी नज़र
कि पत्थर तक चटक गया.

अब तो बदल गयी होगी तुम्हारी भाँख भी.
हो सकता है मैं तुम्हें न पहचान पाऊँ तुम्हारी बोली से.
लेकिन पहचान जाऊंगा आँख के तिल से
जो तुम्हें मिला है तुम्हारी माँ से.

जब भी कभी मिलूंगा इस दुनिया में
मैं पहचान लूंगा तुम्हारे हाथों से
वे मैंने तुम्हें दिए हैं.

बोर हो रही हूँ....

मुझे याद है वो दिन जब पहली बार पंचमी को हमने अपने से अलग किया था, जब उसका नाम स्कूल में दर्ज़ किया गया था...और पंचमी अपने नये यूनीफ़ार्म,नये स्कूल बैग,नये पानी की बोतल,और नये टिफ़िन बॉक्स के साथ स्कूल गई थी हम भी थे उसका हौसला बढ़ाने वालों में ...पहले दिन सारे मम्मी पापा अपने बच्चों के साथ स्कूल पहँचे थे..स्कूल की टीचरें उन बच्चों के साथ कुछ गाने वाने गा रहीं थी और खेलते कूदते मन बहलाते हुए हमारी बिटिया को हमसे दूर ले जा रही थी......तनुजा(मेरी पत्नी) की तो आँख भर आई थी...उसका मन रो रहा था,चेहरा देखकर लग रहा था कि अपनी भावनाओं को दबाने की कोशिश कर रही है...यही हाल कमोबेश वहाँ सभी माँ बाप का था, खासकर जितनी मम्मियाँ थीं सबके सब रोये जा रही थी .... साड़ी के पल्लू या रूमाल से अपने चेहरे को छुपाने की कोशिश भी कर रहीं थी..मैं भी कुछ पल के लिये भावुक हो गया था और ऐसे मौके पर हमारी बिटिया पंचमी हमें छोड़ते हुए एक्दम रो नहीं रही थी उलटा वो खुश थी,उसे नये दोस्त,नई टीचरों के बीच अच्छा लग रहा था, बहुत खुश थी पंचमी....और हम सोचे जा रहे थे कि नये महौल में पंचमी रह तो लेगी? हमें कुछ देर छोड़ने पर उदास तो नहीं हो जाएगी...रोने तो नहीं लगेगी....हम तो अभी यही सोच रहे थे........ये सब देखकर मैं अपनी स्कूली यादों में खो गया,अपने स्कूल की खुशबू आज भी मेरी सांसों मे रची बसी है... .....जब मैं छोटा था तो अपने बड़े भाई की क्लास से अक्सर ढूंढ्कर मुझे मेरे क्लास में पहुँचाया जाता था........थोड़ा और बड़ा हुआ तो अक्सर मेरा बड़ा भाई मेरी क्लास में मुझे देखने चला आता था....मैं पूछता "क्यौ आये हो" तो बताता कि "मैं देखने आया था कि कोई तुम्हें परेशान तो नहीं कर रहा?" ......पर यहाँ तो पंचमी का कोई बड़ा भाई या बहन भी तो नही है..... हमने तो अपने दिन हँसते खेलते गुज़ार दिये...पर अपनी बेटी पंचमी को अपनी क्लास में जाते हम पहली बार देख रहे थे, .... अब अपने स्कूल की वजह से पंचमी हमसे अलग होने वाली थी...अरे कुछ समय के लिये लिये ही सही...स्कूल के बाद तो हम उसे घर तो ले ही आएंगे...फिर भी उसका स्कूल में एडमिशन हमारी ज़िन्दगी में एक महत्वपूर्ण घटना तो थी ही...पढ़ते बढ़ते क्लास दर क्लास अब वो छ्ठी में पहुँच गई...और अभी उसकी छ्ठी की परीक्षा समाप्त हुई है,और उसकी छुट्टियाँ चल रही हैं,मैं तो अपनी ऑफ़िस के कार्यकलापों की वजह से पंचमी को ज़्यादा समय दे ही नहीं पाता.....सारा बोझ पत्नी को झेलना पड़ा... पंचमी की परीक्षा हो और तनाव तनुजा को हो, पंचमी को पढ़ते देख और रटते देख मुझे उस दया आती है......सोचता... मैने ही पढ़ के क्या कर लिया?...पंचमी को देखकर ये साफ़ लग जाता है कि पढ़ाई में उसे मज़ा बिल्कुल नहीं मिल रहा .. पर इधर मैने एक नई बात नोट की पंचमी के बारे में "मैं बोर हो रही हूँ"...उसका तकिया कलाम होता जा रहा है।

पंचमी गोआ के रास्ते में कहीं

बोर हो रही हूँ...पता नहीं ये शब्द मेरी बेटी पंचमी के हैं या इस उम्र के सारे बच्चों का?....आजकल के बच्चे कार्टून नेटवर्क,पोगो या किसी चैनल पर चल रहे रीयलिटी शो,या घर में चल रही कोई भी फ़िल्म में तो बोर नहीं होते, ..पर इससे लग किसी भी जगह वो बोर होते हैं......इतवार को पंचमी की साईकिल, जिसकी हवा काफ़ी दिनों से निकली हुई थी...ठीक करवाया..थोड़ी देर चलाने के बाद फिर वही "बोर हो रही हूँ"........आखिर पूरे घर में एक ही तो बेटी है ...पर उसकी बोरियत को मैं कम से कम दूर नहीं कर पा रहा...असहाय महसूस कर रहा हूँ...



पंचमी
मेरे एक मित्र हैं परमानन्द मिश्र... वो हमेशा कहते हैं .... "बिमल बाबू एक और कै लेते तो का हुई जात?पंचमी पर कितना अन्याय कर रहे हैं आप लोग,अगर घर में अकेली रहेगी तो बोर तो होवे करेगी?..... आप कुछ नहीं कर सकतेअरे उसके साथ भी कोई खेलने वाला/वाली चाहिये?अब मिश्रा जी को क्या बताएं कि पंचमी का खिलौना तो अब हम ला भी नहीं सकते....ये हमारा फ़ैसला है..


तो मिश्राजी कहते हैं कि "कल को आपको कुछ हो हवा गया तो वो काम लड़की थोड़े ही करेगी"....मैने कहा तब की तब देखेंगे, पर अभी क्या किया जाय.....पंचमी की परीक्षा खत्म होते ही हम घूमने गोआ गए थे....कुछ समय मस्ती में काट कर हम वापस मुम्बई आ गए और फिर से पंचमी का...स्थाई स्वर "मैं बोर हो रही हूँ" सुन कर बड़ा अजीब सा लगता है..


पंचमी की कटहल के साथ एक तस्वीर

पंचमी भी तेज़ी से बढ़ रही हैं,खेलना,डांस करना ज़्यादा पसन्द है उसे.....पर अब एक मई को रिज़ल्ट आने वाला है....उसे तो धुकधुकी भी नहीं हो रही कि रिज़ल्ट आने वाला है..और हम माँ बाप उसके रिज़ल्ट को लेकर परेशान हैं....कैसे नम्बर आएंगे? रिज़ल्ट देने वाले दिन ,स्कूल में अभिभावकों को बुलाकर हाथ में रिज़ल्ट दिया जाता है,वहाँ ये बताया जाता है कि बच्चा कहां कहां कमज़ोर है....किन बातों का ध्यान रखें....पता नहीं बड़ी होकर क्या करेगी पंचमी....पर हम जो बड़े हो गये हैं उनका तो जीना दूभर हो गया है.... हमने तो कभी सोचा नहीं कि बड़े होकर क्या करेंगे? तो पंचमी के बारे में इतनी चिन्ता करने की क्या ज़रूरत है?

कोशी, किताब और कविता.

कोशी कि आजलक छुट्टियां चल रही हैं, १०वी के इम्तहान के बाद। इस समय का उपयोग वह किताबें पढ़ने मी कर रही है। घर के पास दो बुक स्टोर हैं, जिनमे वह जा रही है। इस बीच उसने एक कविता लिखी- अपने घर के ह्गामाले मी उसने चेरी के बीज बोए , मगर वहाअन सीताफल का पेर उगा और उसमे फल आ गया। इसी बात से प्रेरित होकर। उसने अपनी यह कविता पाने ब्लॉग jalpariyonkikavitayen.blogspot.com पर डाली हैं।

पुस्तकें हमारे जीवन का एक एअहम हिस्सा हुआ करता था। अब लगभग यह आदत छूट सी रही है। हमारे यहाँ इसका माहौल अभी तक है। इसका श्री अधिकतर अजय को जता है। कोशी आजकल अच्छी फिल्में भी देख रही है। अजय ने उसे एक तरह से जबरन 'सिटी ऑफ़ गोद 'दिखाई। पहले वह देखने को तैयार न थी। पर जब देखना शुरू किया टैब पूरी फ़िल्म देखने के बाद ही वह उठी।

उसकी यह छुट्टियां इन सबके बीच बीत रही है। इस क्रम मी वह धीरे धीरे खाना बनाना भी सीख रही हाय। उसकी समझदारी मी इजाफा हुआ हाय। एक दिन हम दोनों ही देर से आए, उसने अपने मन से सभी के लिए चिकन बना कर रखा था। बताया- 'सोचा, तुमलोगों को देर हगी, इसलिए बना दिया।' जिम्मेदारी का अहसास बेटियों को तुरंत हूने लगता है। कोशी भी इसका एक उदाहरण है। अभी वह बेहद खुश भी है, क्योंकि वह अभी लाहौर मी अपनी दीदी तोषी से मिलकर आई है, उसकी सहेली भूटान की चिमी से अपनी दोस्ती गाधी करके आई है।

आने दो बेटियों को धरती पर

ये तस्वीर कुसुम की है। कुसुम सुलभ इंटरनेशनल के स्‍कूल में सिलाई-कढ़ाई की छात्रा है। अभी अभी जो रविवार गुज़रा है, हम और रवीश वहां गये थे। सिर पर मैला ढोने वाली औरतों की बदली हुई जिंदगी की कहानी सुनने। और भी कई पत्रकार थे। ज़्यादातर अंग्रेज़ी के। सुलभ की रवायत ये है कि सुबह-सुबह सामूहिक प्रार्थना होती है। प्रार्थना गीत सुलभ के संस्‍थापक बिंदेश्‍वर पाठक ने रचा है, आओ हम मिलजुल के बनाएं सुलभ सुखद संसार। प्रार्थना के बाद सुलभ से जुड़े कर्मियों में से कुछ लोग अपनी रचनाएं सुनाते हैं। कुसुम ने उस दिन ये कविता सुनायी। रवीश ने कहा, ये कविता बेटियों के ब्‍लॉग के लिए प्रासंगिक है। कविता पढने के बाद कुसुम भीड़ में गुम हो गयी - लेकिन रवीश ने उसे ढूंढ़ निकाला। हमने उसकी कविता अपनी डायरी में उतार ली... और वो अब यहां पेश कर रहे हैं।
आने दो बेटियों को धरती पर
मत बजाना थाली चाहे
वरना कौन बजाएगा
थालियां कांसे की
अपने भाई-भतीजों के जन्‍म पर

आने दो बेटियों को धरती पर
मत गाना मंगलगीत चाहे
वरना कौन गाएगा गीत
अपने वीरों की शादी में

आने दो बेटियों को धरती पर
मत देना विश्‍वास उन्‍हें
वरना कैसे होंगे दर्ज अदालत में
घरेलू हिंसा के मामले

आने दो बेटियों को धरती पर
मत देना कोई आशीर्वाद उन्‍हें
वरना कौन देगा गालियां
मां-बहन के नाम पर

आने दो बेटियों को धरती पर
मत देना दान-दहेज उन्‍हें
वरना कैसे जलायी जाएंगी बेटियां
पराये लोगों के बीच

आने दो बेटियों को धरती पर
पनपने दो भ्रूण उनके
वरना कौन धारण करेगा
तुम्‍हारे बेटों के भ्रूण
अपनी कोख में।

तोषी की अगली प्रदर्शनी

बाजी नामा का निमंत्रण पत्र
अभी हमलोग सपरिवार लाहौर गए थे.वहाँ हमने तोषी उर्फ़ विधा सौम्या का रसूख देखा.हम बहुत खुश हुए .हम वहाँ थे तभी उसे पाकिस्तान की पंजाब सरकार से फ्रेश क्रीम नमक अवार्ड मिला.विधा सौम्या की पहली प्रदर्शनी 'लाहोरी बच्चे' सफल रही थी.उसकी अगली प्रदर्शनी का शीर्षक है' बाजी नामा'.मुझे पूरी उम्मीद है कि उसकी यह प्रदर्शनी पहली से ज्यादा कामयाब होगी.

एक से पांच तक: राग तिन्‍नी

ये सब तिन्‍नी की मार्च की गुनगुनाहटें हैं। बहुत भाते हैं। राग को लेकर उसकी समझ हैरान करती है। चार बांग्‍ला में है और एक हिंदी में। हिंदी के टुकड़े भी बांग्‍ला से अनुवाद हैं। आप सुनिए।








तिन्नी का कबूतरनामा

तिन्नी आजकल कबूतरनामा गढ़ रही है। मेरी बालकनी पर कबूतरों का आना जाना लगा रहता है। उनके लिए दाना पानी भी वहां रख दिया जाता है। इन्हें देखते देखते तिन्नी बड़ी हो रही है। और जब वो खुद बोलने समझने की हालत में हुई तो कबूतरों से रिश्ता ही बना लिया। एक गमले के पीछे कबूतरी ने दो अंडे दिये। तिन्नी कई दिनों तक उनके लिए चावल के दो दाने फेंकती रही। अपना दूघ बाहर गिरा देती थी। ताकि बेबी पायरा ब्रेकफस्ट कर ले। बांगला में कबूतर को पायरा कहते हैं। एक दिन देखा कि वहां दो टूथब्रश और पेस्ट पड़े हुए थे। ज़ाहिर है तिन्नी के ही थे। मैंने पूछा तो कहा कि तुम बोका हो। बेबी पायरा ब्रश नहीं करेगी तो उसका दांत खराब हो जाएगा। उसकी मम्मी उसे डांटेगी। जब तब वो बालकनी में जाकर कबूतरों को बुलाने लगती है, उनसे मम्मी की तरह बात करने लगती है। आज उसने कहा कि पापा मॉल चलो। मैं पूछा तो बताया कि बेबी पायरा के लिए स्वेटर और तकिया खरीदना है। उसके पास तकिया नहीं है। तिन्नी को लगता है कि जो उसे चाहिए वही बाल कबूतरों को भी चाहिए। तरह तरह के संवाद चलते रहते हैं। वो अपने घर, मन सबकी बात इन आते जाते बेपरवाह कबूतरों से करती रहती है। लंबी लंबी बातें।

बेटी पर पिता का साया

मालती- एक महिला बंदी- कल उसकी एक कविता - माँ पर इसी ब्लॉग में डाली थी। शायद किसी को पसंद नही आई। लेकिन मालती या इस तरह की बेटियाँ किस हालत में जेल के सींखचों के पीछे पहुँचती हैं, यह जानना बेहद ज़रूरी है। जी हाँ, मालती ने अपने पति का खून किया था। भारतीय सन्दर्भ में 'भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है' और यहाँ खून? मैंने उससे यही पूछा। पलटकर उसने मुझसे पूछा, 'दीदी, बताइये तो, हम औरतें किसी का खून क्यों करती हैं? क्या ऎसी बात है कि हम ऐसे मकाम तक पहुँचने को मज़बूर हो जाती हैं। हर लड़की शादी के समय एक सपना ओद्ती है, लेकिन उसके पीछे जब उसकी हँसी, उसका खुला व्यवहार और विचार शक के तराजू पर बिछाया जाने लगे, बात पीछे उसे ताने और मार-पीत से उसे निपटाया जाने लगे और उसके बाद उसके लिए हर समय उसकी सेवा में बिछे रहना पड़े, कोई कैसे और कितना बर्दाश्त करे? हाँ, हमें यह अक्ल नही आई कि हम उससे तलाक ले लेते या उसको छोड़ देते। टैब हमारे सामने बस यही रह गया था कि कैसे हम इससे छुटकारा पायें। हाँ, मैंने खून किया है, मगर मुझे इसका कोई मलाल नहीं है। मैं कान्हा चाहूंगी इस दुनिया के सभी पुरुषों से कि वे अपनी बीबी को प्यार करे, उसे शक की नज़र से ना देखे। शक सुई बनाकर जिगर में चुभती है और खंजर बन कर उसके पार उतर जाती है।
मालती सबला है, उसे उसके पिता ने सहारा दिया। वह अब निडर है, इतनी कि जेल में लोग ख़ास तौर पर मीडिया के पहुँचने पर सभी पाना चेहरा छुपाते हैं, उसने आगे बढाकर इन्टरव्यू दिया। जिस जेल के बारे में हमारे विचार कुछ बारे ऐसे-वैसे होते हैं, वहाँ उसे कैसा सहारा मिला, जो हमारे भ्रम को काफ्फी हद तक दूर कराने में sahaayak है। पिता के सहारे से आज वह अपनमज़बूत पाती है। माता- पिता का यह सहारा बेटियों के लिए वरदान है। आये, मालती की एक और कविता देखें-

सपना
कराग्रिः में जब रखा कदम
मेरी जिन्दगी हुई वीरान
वहाँ का माहौल देख हुई हैरान
पिताजी के पत्र द्वारा मिली प्रेरणा
कुछ भी हो, अब मुझे है संभालना
समय का सदुपयोग है करना
जीवन का महत्त्व है समझना
दिल में उठी आशा की किरण
आगे करना है शिक्षा ग्रहण
किया है मन ही मन मानना
सब दुखों का किया है हनन
नवजीवन मंडल ने बढाया हाथ
अधिकारियों ने दिया मेरा साथ
संकटों पर पाई है मैंने मात
दूर हुई मेरे जीवन की रात
शिक्सन का सपना था अधूरा
पूर्ण हुआ और आया सवेरा
देखते-देखते मेरा जीवन है खिला
कारागृह में रहते मुझे सब है मिला
यहाँ चिंता और चिंतन भी है
बस हर व्यक्ति पर निर्भर है
करना चाहो तो साधन भी है
कारागृह-कारागृह नहीं, सुधार-गृह भी है।
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दो बेटियाँ ये भी

मालती और शीरीं, ये दो महिला कैदी हैं, अलग अलग जेलों मे, अपने -अपने अपराधों के लिए। अवितोको द्वारा जब हमने इनके लिए महिला कवि सम्मेलन का अयोअजन करवाया, टैब वहां के जेल बंदी भी हमारे साथ साथ कविता पढ़ते हैं। यह उनके विकास के लिए, अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए है। बगैर उनके मन में झांके, हम अपनी बात उन्हें नही बताते। कवि सम्मेलन के दौरान मालती और शीरीं दोनों ने ही माँ के लिए अपनी कविता पढी। अबतक तो मैं केवल माँ की तरफ़ से लिखती रही। पर कहा ना, कभी बेटी बनाकर देखिए, कितना अच्छा लगता है। सो बेटी के रूप मी शीरीं और मालती यहाँ हैं-
माँ कि ममता (शीरीं)

माँ कि ममता कितनी प्यारी
सारी दुनिया से लगती न्यारी
माँ ने हमें जो प्यार दिया
दे ना सकेगी दुनिया सारी
माँ की ममता के आगे
सारी दुनिया हरदम हारी
माँ हमको जब दानत पिलाती
लगती टैब तो और भी प्यारी
माँ के एक आँचल के लिए
फिरती सारी दुनिया मारी
माँ हो हर पल साथ में जिसके
उसकी दुनिया सबसे न्यारी
माँ ने मुझको जन्म दिया
मैं हूँ उस माँ की आभारी
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माँ

ओ माँ, टोन अपना दूध पिलाया
अपने ही खून से मुझे सींचा
मेरा हाथ पकड़ चलाना सिखाया
हर संकट में तूने मुझे बचाया
ओ माँ, तुझे मेरा प्रणाम
तेरी जुदाईई ने मुझे किया अनाथ
दुनिया के तानों ने किया मेरा घाट
तेरे आँचल की छाया है मुझे याद
सदा मिलता रहे मुझे तेरा साथ
ओ माँ, तुझे मरता प्रणाम
तेरी याद जब मुझे आती
लगता एकांत ही है मेरा साथी
सारे रिश्ते -नाते हैं स्वार्थी
बस तेरा ही प्रेम है निस्वार्थी
ओ माँ, तुझे मेरा प्रणाम
काश माँ तू मेरे पास होती
तेरी ममता की छाँव मैं मैं सोती
जीने की आस मुझे होती
तेरे प्यार में मैं ख़ुद को खोती
ओ माँ, तुझे मेरा प्रणाम
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हाय रे ये बेटियाँ

अभी- अभी २९ मार्च को मेरा जन्म दिन था। अब आजकल जन्म दिन १२ बजे रात को ही मना लिया जता है। सो २८ की रात को जब मैं एक नाटक देखकर घर लौटी तो कोशी केक लेकर मेरा इंतज़ार कर रही थी। ने खाना नही खाया था। १२ बजे, केक कटा, हैप्पी बर्थ दे का अंतर्राष्ट्रीय गान हुआ। दूसरे दिन कोशी ने मुझे बरा प्यारा सा गले और कान का सेट भेंट किया। आज इसे पहन कर दफ्तर आई हूँ और सभी इसकी बड़ी तारीफ़ कर रहे हैं। मुझे भी बताने में बहुत अच्छा लग रहा है कि इसे मेरी बेटी ने प्रेजेंट किया है। २९ को फ़िर भी मैं बेचैन थी। तोषी का फोन नही आया था। जन्म दिन था न सो मैं भी बच्ची बन गई थी। अपनी ही बच्ची कि बच्ची। सो अपने अभिमान में थी कि फोन तो उसे करना चाहिए। आशंका भी हो रही थी कि कहीं वह भूल तो नहीं गई मेरा जन्म दिन। आख़िर मेरा जन्म दिन मनाने की आदत उसी ने तो डाली है। अब वही भूल गई? कि ११ बजे के करिओब उसका फोन आया। और मेरा जन्म दिन पूरा हुआ। बेटियों के बिना कुछ भी पूरा कहाँ लगता है। याद आता है, टैब मैं अपनी माँ की बेटी थी। हिन्दी फिल्मों मी खूब जन दिन मनाते देखती थी, सो हमने भी अपना जन्म दिन मनाने की ठानी। टैब केक का कॉन्सेप्ट कहां था छोटी सी जगह में॥ सो जनाब, हमने हलुआ बनाया, उसे ही केक की तरह सजाया, उस पर घर में जलाईई जानेवाली मोमबत्ती जलाई और उसे ही बुझा दी। किसी ने जन्म दिन का अंतर्राष्ट्रीय गान नहीं गाया। (किसी को आता ही नही था। मुझे पता था, पर मैं ख़ुद अपने लिए कैसे गाती? ) माँ ने मुझे एक रुपया दिया। आज जन्म दिन पर मान की और उस एक रुपये की बहुत याद आती है। बाद में अपनी दीदी के जम दिन पर भी वही हलुए वाला केक बनाया। मैंने उसे एक अठन्नी दी। वह रुपया और वह अठन्नी नहीं भूलती। आज के समय में तो और भी याद आती है। और कितना अच्छा लगता है, बेटी बन जाना। बेटियों की तरह जीना। आज माँ होती तो और भी अच्छा लगता। है ना?

तोषी और बिरियानी

तोषी टैब बहुत छोटी थी। मैंने नौंन वेज खाना शुरू ही किया था। बनाना आता नहीं था। आज भी बनने के नाम पर कंपकंपी छूट जाती है। तोषी टैब दूसरी या तीसरी क्लास में थी। मैंने उसके लिए चिकन बिरियानी बनी। पहली बार। परोसा। वह खाने लगी। वह खा रही थी और मैं उसे इस उम्मीद में देखे जा रही थी कि अब वह इसके बारे में कुछ बोलेगी। जब काफी देर हो चुकी और उसने दूसरी बार परोसन लेकर भी खाना शुरू कर दिया, लेकिन कुछ कहा नहीं, टैब मुझसे रहा नहीं गया। बड़ी आतुरता और उम्मिओद से भरकर मैंने पूछ, "बेटू, बिरियानी कैसी बनी है?" उसने एक बार बिरियानी को देखा, फ़िर मुझे, फ़िर बिरियानी को और फ़िर से मुझे। इसके बाद बड़ी गंभीरता से बोली- "हाँ, ठीक ही बना है। दो=चार बार और बनाने लगोगी तो अच्छा बनाने लग जाओगी। " आज थोडा थिक-ठाक ही बना लेती हूँबिरियानी, मगर जब कभी कोई प्रसंग आता है, ख़ास तौर से बिरियानी का, तो यह बात याद आती ही है। अब तो और

भी, जब वह लाहौर में है, बहुत अच्छा खाना बनाती है, दीवाली में उसने अपने दोस्तों के लिए ८० लड्डू बनाये तो एक दिन ३० लोगों के लिए दोसा सांभर चटनी बनाई। अभी होली में उसने अपने सभी दोस्तों के साथ न केवल होली खेली, बल्कि ४० लोगों को खाना बनाकर खिलाया। ५ किलो matan बनाया और रस पुए, दही बड़ी और जो सब उसने मुझे होली पर बनते देख हाय, वह सब कुछ। इतना स्वादिष्ट खाना बनाती है कि आप उंगलियाँ चाटते रह जाएं। मैंने तो उसे कह दुसे कह भी दिया कि उसकी शादी में मैं खाना बनाने valii नहीं रखने वाली।

ताज़‍िल गोलमई बाप, शाज़‍िलु बेटी

  
ताज़‍िल गोलमई एक समय एनडीटीवी इंडिया के क्राइम टाइम एंकर थे। प्राइम टाइम एंकर से ज्यादा लोग उन्‍हें जानते रहे हैं। आज कल आधी रात के बुलेटिन्‍स पढ़ते हैं। रिपोर्टर तो ख़ैर कमाल के हैं ही, किस्‍सागो भी लाजवाब हैं। ख़बर का कारोबार ख़त्‍म करके ताज़‍िल के साथ बातचीत में कैसे रात बीत जाती है, पता नहीं चलता। तस्‍वीर में न्‍यूज़ रूम के बीच में वे रंगदारी दिखा रहे हैं। इस छवि को अपने मोबाइल कैमरे में उतारा है क्राइम रिपोर्टर मुकेश सिंह सेंगर ने। वैसे छवि गोलमई ताज़‍िल की बीवी का नाम है। लेकिन यहां ताज़‍िल के साथ जो तस्‍वीर है, वो शाज़‍िलु की है। शाज़‍िलु ताज़‍िल की बेटी है। अदाओं के मामले में ताज़ि‍ल को पीछे छोड़ती शाज़‍िलु की ये छवि ख़ास तौर पर बेटियों के ब्‍लॉग के लिए हमने उड़ायी है।

मुलगी शिकली प्रगति झाली

मुंबई में आजकल किसी न किसी ऑटो के पीछे लिखा मिल जाता है, यह नारा- 'मुलगी शिकली प्रगति झाली,'' यानी बेटी की सीख, जग की प्रगति। बहुत गहरी लाइन है यह। पहले भी कहा जाता रहा है कि एक लड़की पढ़ गई तो समझो, तीन पीढियां पढ़ गईं। 'मुलगी शिकली प्रगति झाली ' में केवल उस लड़की की प्रगति की बात नहीं कही गई है, बल्कि उसके सीखने से सम्पूर्ण विश्व की प्रगति की बात कही गई है। एक और नारा दीखता है- "मुलगी शिकेल, सर्वाना शिकवेल', यानी बेटी सीखेगी, सबको सिखाएगी। बेटी अपनी हो या किसी और की, कम से कम उसकी पढाई में हम कहीं से योगदान कर सकें तो समझे, देश की प्रगति में हमने एक नन्हा सा योगदान कर दिया है। आज मेरी तोषी और कोशी दोनों पढ़ रही है, तो इसके साथ ही मुझे संतोष है कि अपनी संस्था 'अवितोको' के माध्यम से कुछ और बेटियाँ भी पढ़ रहीहैं। इनमें से एक है, नेहा। दूसरी कक्षा से वह हमारे साथ है। उसके पिता किसी प्राइवेट कम्पनी में चपरासी हैं और माँ मन्दिर में फूल बेचने का काम करती है। फ़िर भी अपनी बेटी को एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढाने का सपना रखे हुई है। आज नेहा ९वी में है। पढाई के प्रति गंभीर है और आगे भी पढ़ना चाहती है। मेरे घर में काम करती है- माला। वह अपनी दोनों बेटियों को पढा रही है। मैं उनकी पढाई में भी मददगार बन पा रही हूँ, यह मेरे लिए अपने सामाजिक दायित्व को पूरा करने के समान है, क्योंकि मैंने अपनी माँ को देखा था कि ससुराल में होने के बावजूद, सर पर पल्लू रख कर वे घर -घर घूम कर बेटियों को स्कूल भेजने का आवाहन करती रहती थीं। बेटियाँ आज अन्तरिक्ष पर हैं, मैनेजमेंट के उच्चतम पदों पर हैं। उनकी काबिलियत के पंख को मज़बूत करने और उनमें उड़ान भरने की ताक़त देने का काम हमारा है। ऑटो का संदेश 'मुलगी शिकली प्रगति झाली' हम सबके लिए है।
"बेटियाँ जन्मती हैं/ उग जाती हैं, घास-फूस सी/ बढ़ जाती हैं, खर -पतवार सी/बेटियाँ जन्मती हैं और थाम लेती हैं आकाश को अपनी हथेली / भर लेती हैं इन्द्र धनुष को अपने ह्रदय में। बेटियाँ कभी भी नहीं रोतीं अपना रोना, उनकी रुलाई में है जग का क्रंदन/ बेटियाँ हंसती हैं और हंसा जाती हैं सारीकायनात को। " आये, हम भी उनके साथ हँसे, उनकी शिक्षा- दीक्षा में शामिल हो कर और कहें ही नहीं, बल्कि कर के दिखाए कि हाँ सही में, - 'मुलगी शिकली प्रगति झाली'।

मुझे साबित करने की जरुरत नहीं

अपने पिछले पोस्ट में , एक बेटी की मां का हलफनामा, आपकी खरी-खरी टिप्पणियां मिली थी, जिसे मैं उस वक्त पढ़ नहीं पाई थी।
अपने तय समय से तकरीबन १५ दिन पहले मुझे अस्पताल जाना पड़ा. रास्ते में भी क्या मैं तो ऑपरेशन थियेटर तक में, मेरे मन में यही दबी इच्छा थी कि मुझे बेटा ही होगा. बेटे से मुझे कतई प्यार नहीं है पर एक पल के लिए मैं चाहती थी कि कोई कहे तुम्हें बेटा हुआ है. बस इतनी ही देर के लिए मुझे बेटा चाहिए. जैसा कि मैं मानती हूं कि हर औरत अपनी कोख को साबित करने के लिए ही बच्चे जन्मती है. ठीक उसी तरह मैं भी अपने को सिर्फ साबित करने के लिए ही बेटा चाहती थी और यह भी चाहती थी कि वह बेटा फिर बेटी में बदल जाए.ऐसा संभव नहीं, यह हम आप जानते हैं पर सोच तो सोच है,
आपरेशन के दौरान गुजरने पर मन ड़रा हुआ था और कुछ सैकेंड के बाद ही मेरी डाक्टर ने जब बताया कि मुझे बिटिया हुई है और साथ ही उसकी रोने की दो हल्की सी आवाज जब मैंने सुनी तो मन झूम उठा. दो तीन मिनट बाद जब मैंने उसे देख- लाल रंग की गुडिया, टप टप बटन की तरह आंख खोले मुझे देख रही थी. और उसे फिर बाहर ले जाया गया. मैं बहुत खुश थी पता नहीं क्यों मुझे बेटे की याद भी नहीं आई. इतनी सुन्दर सी बेटी देख कर मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह मेरी ही बेटी है. आपरेशन तो दस मिनट में ही खत्म हो गया और बच्चे को नरसरी में रख दिया गया. मेरे पति, मेरी सास व ननद उसे केवल पांच दस मिनट के लिए ही देख पाए थे. मैं बाहर निकल कर सब से यही पूछ रही थी कि बहुत सुन्दर थी ना. सभी बहुत खुश थे और मैं सबसे ज्यादा खुश थी पता नहीं क्यों मैं बहुत खुश थी. शायद मैंने उस एक पल को जीत लिया था, जब मैने एक पल के लिए लड़का नहीं होने का अफसोस अपनी बड़ी बेटी के वक्त महसूस किया था. मैने अपने पिछले हलफनामें में यह स्वीकार किया था कि मैं एक पल के लिए बेटा नहीं होने के कारण क्षुब्ध हुई थी और फिर कभी नहीं हुई थी. पर इस बार मैं कुंठा मुक्त हो कर उस पल को जीत ली थी. ( किसी टिप्पणी थी कि वाह क्या प्रगतिशीलता है) पर अब मैं यह अनुभव करती हूं कि सचमुच दूसरी बेटी क्या तीसरी बेटी को भी बेटे होने की तरह अनुभव करना प्रगतिशीलता है. ( हम क्यों बेटे की ही सिर्फ इच्छा रखते हैं क्यों नहीं बेटी की इच्छा रख सकते. क्या आपने कभी सुना है कि बेटे होने पर किसी ने उसे नमक चटा कर मार दिया हो.)

दो दिन तो मैं बहुत खुश होती रही. कितने फोन आते रहे और ना जाने कितने जाते रहे. कई बार मजा आता तो कई बार सामने वाले का उत्साह में कमी देख दुःखी हो जाती थी। मन नहीं करता कि किसी दूसरे को फोन कर के बताए. पर क्या करें समाजिकता थी, नहीं बताते तो लोग कहना शुरु करते कि अच्छा लड़की हुई इसलिए नहीं बताया. और अगर बताते तो वहां से एक जैसा नीरस जवाब , चलो कोई बात नहीं, अपना का ख्याल रखना. मुझे ये कोई बात नहीं सुनकर इतनी कोफ्त होती थी कि क्या बतांऊ. किसी ने यह कहने की कम से कम हिम्मत नहीं कि अगली बार बेटा ही होगा. अपनी खुशी कम होती जा रही थी, मैं महसूस करने लगी. और फिर मैंने फोन पर बात करना ही बंद कर दिया. फिर बात हुई बेटी के पैदा होने पर जश्न मनाने की। जश्न के तौर पर दावत (पार्टी) की बात मां ने उठाई क्यों कि हमारे घर के सारे बच्चों कि पार्टी हुई है तो इसकी कैसे नहीं होगी. पर मुझे लग रहा था कि पार्टी करना मतलब यह साबित करना कि मैं दूसरी बेटी होने पर भी खुश हूं. मैं खुश हूं इसे मुझे साबित करने की जरुरत नहीं है.

फ़िर से बोलोगी झूठ?

बच्चे भी कभी कभी ऐसा कुछ कह जाते हैं कि बस। उनकी मासूम बातें आपका गुस्सा तो काफूर कर ही देता है, aapake मन के तनाव को खत्म भी कर देता है और आपको अपनी जैसी ही सरल मुस्कान से सराबोर भी कर देता है। मेरे देवर अतुल की छोटी बिटिया है- सुमि। बहुत ही छोटी थी, लगभग तीनेक साल की। उसने एक दिन सभी से छुपा कर कुछ खा लिया। पाता चलने पर जब उससे पूछा गया तो किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह उसने भी छुपा कर खाने की बात को खारिज कर दिया। अजय ने उसे डांटा। फ़िर कहा-" फ़िर से बोलोगी झूठ?" उसने भी बड़ी ही दबंगता से कहा- "हाँ." उसकी इस दबंगता से सभी हैरान! अजय ने तनिक गुस्से में कहा- "अच्छा? फ़िर से झूठ बोलोगी? बोलो तो ज़रा?" सुमि ने भी उतने ही जोर से कहा- "झूठ ।" फ़िर क्या था! किसका गुस्सा और कैसा गुस्सा! सभी ठठा कर हंस पड़े। आज भी यह बात हम सभी को बहुत गुदगुदाती है।

सभी के लिए यह कविता

तोषी जब छोटी थी, तब उसे मैं अक्सर बाबा नागार्जुन की यह कविता सुनाया करती। उसने इसे इतनी बार सुना कि उसे यह कविता याद हो गई। एक बार उसने अपने स्कूल में भी इसे सुनाया। बाबा की खासियत थी, बेहद सरल शब्दों में अपनी बात कहना। यह कविता तो ख़ास तौर पर बहुत सीधी और मन को छू जानेवाली है। इस कविता में कहीं कोई विराम चिन्ह नहीं है, जिसे बाबा ने कहा था कि यह निरंतरता है स्थिति की। बाद में यह कविता मैंने कोशी को भी सुनाई। आपके लिए यहाँ यह कविता-
बहुत दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
बहुत दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
बहुत दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
बहुत दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अन्दर बहुत दिनों के बाद
धुआं उठा आँगन के ऊपर बहुत दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें बहुत दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की आंखें बहुत दिनों के बाद

फ़िर से बेटी?


आज भी याद है, जब कोशी होनेवाली थी। तोषी हमारे साथ पहले से थीं, इसलिए सभी ने एक स्वर से कहना शुरू कर दिया कि अब तोबेटा हो जाना चाहिए। परिवार पूरा हो जायेगा। एक कम्पलीट फैमिली। कोई मुझसे ये नही पूछ रहा था कि मुझे क्या चाहिए? हम चाहते तो उसका लिंग परीक्षण करवा सकते थे। मगर अचानक परिणाम के सामने आने की खुशी अनुमानित खुशी से कई गुना ज़्यादा होती है। दूसरे, हमें इसकी कोई ज़रूरत ही नही थी। मैं तो यह देख कर हैरान थी कि शहर के सभी काजी दुबले हो रहे थे। मैंने पूछा कि अगर मुझे पहले तोषी के बदले कोई तोष या रमेश या महेश हुआ रहता तो भी आपलोग क्या यही कहते कि अब तो बेटी होनी ही चाहिए? नहीं, तब आप यह कहते कि कुछ भी हो, चलेगा। यह मेरे साथ नहीं, मगर उन महिलाओं के साथ तो होता ही है, जिनकी पहली संतान बेटा है। और दरअसल मुझे बेटा नहीं चाहिए, आपकी सूचना के लिए। यकीन करेंगे आप कि मेरे उस ८ मंजिला ऑफिस इमारत में जंगल में लगी आग की तरह ख़बर फ़ैल गई कि विभा को दुबारे भी बेटी ही चाहिए। लोग आ- आ कर पूछने लगे क्यों भाई, , ऐसा क्यों? मैं शायद तब इतनी मुखर नहीं थी, फ़िर भी बोली थी कि आख़िर यह मैं चाहती हूँ, मैं माँ बन रही हूँ, मेरी मर्जी कि मैं क्या चाहती हूँ। कईयों ने तो यह भी पूछ लिया कि अगर बेटा हुआ तो क्या करेंगी? उसे फेंक देंगी या अनाथालय में दे देंगी। खैर, फेंकने या अनाथालय का मुंह देखने की नौबत नही आई, क्योंकि मेरे घर में तोषी की बहन कोशी आई। आपरेशन थिएटर में ही मैंने पूछ लियाथा, जब उसे पेट से निकाला गया, उसकी कांय की आवाज़ और उसकी पीठ मैं सुन व देख पाई थी। ओह, विरल अनुभव था वह, मुझसे रहा नही गया और मैंने पूछ ही लिया- "What is the child? ' "Baby girl." इस उत्तर ने मुझे फूल से भी ज़्यादा हल्का कर दिया। एनीस्थिसिया ने भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। मैं गहरी नींद सो गई थी। ईथर और खुशी के नशे के मिले जुले असर में। होश आने पर जब उसे देखा, तब मेरे मन में एक पक्ति गूँज उठी- 'मेरे घर आई एक नन्ही परी'
अब यह नन्ही परी अपनी उम्र की यात्रा तय करते करते १०वी कक्षा तक पहुँच चुकी है। १२ मार्च से होनेवाली अपनी परीक्षा की तैयारी में लगी है, मगर मुझे अभी भी नही भूलता वह दिन, जब वह आई थी। कितनी समझदार हो गई है वह। मेरे दफ्तर से लौटने पर मेरी तबियत ख़राब देखती है टू मेरे हाथ से मेरा बैग, थैला ले लेती है, पानी ला कर देती है। अभी उसके दादा दादी आए थे, अपनी दादी की साड़ी धूप में डालने का काम बगैर किसी के कहे -सुने ले लिया था। सचमुच, कितनी प्यारी व समझदार होती हैं बेटियाँ।

तोषी के जन्म दिन पर ...



मेरी बिटिया तोषी का जन्म दिन ५ मार्च को था। मैं उसी दिन इसे इस ब्लाग पर डालना चाह रही थी, मगर नही हो पाया। वह पिछले सितम्बर, २००७ से पाकिस्तान के लाहौर में है। लाहौर से याद आता है 'जिन लाहौर नई वेख्या समझो वो जम्याई नही'। तोषी ने लाहौर देख लिया। आज अगर सीमा की बात नही रहती तो हम सब भी यह शहर देख पाते और इसकी माटी की खूबी को महसूस कर पाते। तोषी आर्टिस्ट है। अपनी पढाई के सिलसिले मे वह वहां है। जिस तरह का प्रेम, आदर, सम्मान स्नेह उसे मिल रहा है, अपनी प्रतिभा के कारण, अपनी शालीनता के कारण और सबसे बड़ी बात, अपनी भारतीयता के कारण, वह सोचने पर मज़बूर कर देता है कि काश, ये सीमाएं नही रहतीं। उसके जन्म दिन पर अपनी चन्द लाइनें । आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिन है । वह अभी अपनी दुनिया में कदम रख ही रही है, आज के दिन वह अपनी ताक़त को पहचाने और अपनी शक्ति से अपने साथ साथ औरों को भी ताक़त प्रदान करे। उसके यह कविता -


आओ तुम्हारे लिए बुन दूँ एक रात/ तारों से जगमगाती। /चाँद से नहाती/ सपनों से भीगी भीगी/ बहती हवाओं में इच्छाओं के झूमते-गाते झोंके/ मेरी बेटू, ओस से भीगीसुबह/ जब होगी/ तुम आँखें खोलोगी अपने सपनों के साथ/ तुम्हारी अलसाई आंखों के कोए से झाकेंगे गेंदे -गुलाब/ सूरज टैब अपने दामन से निकाल छोड़ जायेगा सतरंगी किरणों की बारिश/ गाती -मुस्काती आएँगी चिदियाँ मचयेंगी शोर-खोलो, ज़ल्दी खोलो, खिड़कियाँ / हटाओ भारी- भारी परदे/हम आई हैं, घुंघरुओं सी बजती, नीम सी सरसराती/ महसूस करती हूँ/ अपने ह्रदय के भीतर/ बहुत गहरे/यादों के झोंके मुझे/पहुंचा देते हैं/यादों की पोतालियों के पास/नवजात चूजों से गुलाबी तलवे/नन्हें हाथों से खुजाती अपना माथा/दूध पीना छोड़, किलकारी भर भर, बतियाती, मुंह से फेंकती दूध की फुहार/नन्ही छडी से थाप देती, ढोल बजाती तुम/भर देह मिट्टी / आंखों में काजल की मोटी धार/मन में उठाती आशंका- नज़र ना लग जाए/सबसे ज्यादा माँ की ही/घुघुआ मन्ना पर ही सो जाती गहरी नींद/बीच माथे पर/दो चुटिया- 'खग्लोश'/ मेरी गुदगुदी से खिलखिलाती, रन झुन बजती तुम/यूँ ही किलकती रहो/तुम- आज, कल, सदा....!

काम करते हैं लोग

बहुत पहले तोषी को यह कविता पढाई थी.बाद में कोशी ने भी इसे पढ़ा.बच्चों की एक किताब में यह कविता संबंधित चित्रों के साथ छपी थी.जितनी पंक्तियाँ हैं,उतने ही पृष्ठों में उतने चित्रों के साथ छपी तस्वीरों का प्रभाव यहाँ नहीं ला सकता मैं.काम के महत्व को इतने सरल शब्दों में किसी ने नहीं बताया.आज तोषी के जन्मदिन पर यह कविता सभी के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.इस कविता की रचयिता हैं अनिता हार्पर...

काम करते हैं लोग
लोग हर तरह के काम करते हैं
कुछ लोग एक साथ काम करते हैं
कुछ लोग अकेले काम करते हैं
कुछ लोग ऊंचाई पर चढ़ कर काम करते हैं
कुछ लोग काम करते हैं,जबकि दूसरे सोते हैं
कुछ लोग सोते हैं,जबकि दूसरे काम कर रहे होते हैं
कुछ लोग अपना काम पसंद करते हैं
कुछ लोग अपना काम पसंद नहीं करते हैं
कुछ लोग सिर्फ़ एक काम करते हैं
कुछ लोग एक से अधिक काम करते हैं
कुछ लोग काफी देर तक काम करते हैं
कुछ लोग थोड़े समय काम करते हैं
कुछ लोग अपने काम के ढेर सारे पैसे पाते हैं
कुछ लोग कम पैसे पाते हें
कुछ लोगों को काम नहीं मिलता
कुछ लोग काम करते हें,मगर पैसे नहीं पाते
सारी दुनिया में लोग काम करते हैं.

बिटिया के बाप होने की चिन्ता....

जब तक मैं बेटी का बाप नहीं बना था,मैं किसी का बेटा भर था,अपनी ज़िन्दगी में मैने खूब घुमाई की ,खूब मस्ती की और संघर्ष भी खूब रहा खैर वो तो अब भी है ,बेटी के बाप बनने से पहले किसी प्रेमी जोड़े को कही छुपकर मिलते देखता या किसी झुरमुठ में बैठे देखता तो मेरे मन में आता कि जो भी प्यार करने वाले हैं उन्हें तो मिला ही देना चाहिये...मैं भी उन्हें कनखियों से देखकर उनके मज़े से थोड़ा मज़ा चुरा लेना चाहता था..पर बेटी के बाप बनते ही सारा नज़रिया बदल सा गया,अब तो हाल ये है कि जब किसी एकदम युवा जोड़े को कहीं गलबहियाँ डाले देखता हूँ तो मेरे अंदर कुछ अलग ही विचार आते है....... जैसे "ये लड़का तो लफ़ूट लग रहा है, कैसे लड़के को चुना है इस बच्ची ने" मन में आता है कि जाकर बता दूँ बच्ची के माँ बाप को, कि बिटिया को सम्भालिये, उसके साथ भी खेला कीजिये, उसके साथ भी कुछ समय गुज़ारिये,उससे भी बात कीजिये नहीं तो ये घूमती रहेगी चिर्कुटों के साथ और उसके साथ रहते रहते उसी चिर्कुट की तरह हो जाएगी... और आप हाथ मलते रह जाएंगे।


अब अगर मेरी बेटी रात को खेल कर समय से वापस नहीं आती तो चिंतित बाप पहुँच जाता है उसके खेलने की जगह और वहाँ वह देखना चाहता है कि बिटिया कैसे बच्चों के साथ खेल रही है, और आँख फ़ाड़ फ़ाड कर उन सबको अच्छी तरह देखता है....अगर उन दोस्तों में लड़के हैं तो देख कर एक्सरे करके पूरी तरह निश्चिंत हो जाना चाहता है कि बेटी जिन बच्चों के साथ खेल रही है वहाँ सब कुछ ठीक तो है, पर मन है कि हमेशा बिटिया को लेकर शशंकित सा बना रहता है।


जब बिटिया चाव से टीवी से सटकर किसी चैनल पर कोई हाना मोन्टेना का शो देख रही हो या हाई स्कूल म्यूज़िकल जैसा कोई विदेशी सीरियल देख रही हो तो ये बाप उसकी तल्लीनता में बिना बाधा पहुँचाए अपनी तरफ़ से उस सीरियल की जाँच पड़ताल मे जुट जाता है कि आखिर क्या बात है इन सीरियलों में जो खाना वाना छोड़कर इतनी तल्लीनता से देखती रहती है बिटिया? वो कार्टून आदि देखे,बच्चों को इस उम्र में जो करना है वो सब करे,हमारे सामने हमेशा बच्ची बनी रहे पर इन सब के बावजूद हमेशा डर सा बना रहता है कि बिटिया समय से पहले बड़ी तो नहीं हो रही है ?


जो एक बात मुझे निजी तौर पर लगती है कि हम बिटिया के बाप लोग भले ही बड़ी बड़ी बाते करें, अपने और बिटिया के सम्बन्धों को लेकर शायद एक आदर्श स्थिति बयां करते रहें कि घर में बिटिया को लेकर महौल बड़ा हंसी खुशी का बना रहता है,पर इन सब के बावजूद... एक बात जो मेरे मन में स्थाई भाव सा बना रहता है कि क्या हम बिटिया के बाप-माँ कुछ ज़्यादा ही शंकालु तो नहीं हो हो गये हैं कि शायद ये स्थिति सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे साथ ही है या दुनिया के सारे माँ बाप कुछ ज़्यादा प्रगतिशील हैं? कि शायद हमारे मन में ही पिछड़ापन पसरा हुआ है, या कि हमारे अंदर अभी भी सामंती अवशेष हैं जिनकी वजह से हमारी सोच ऐसी हो गई है.......पता नहीं ये कुंठा है या किसी प्रकार की शंका? कि बेटी का बाप होना और बेटे का बाप होना क्या दो अलग अलग बाते हैं?