अनंत तस्‍वीरें दृश्‍यावलियां ख़बर ब्‍लॉग्‍स

बिटिया के बाप होने की चिन्ता....

जब तक मैं बेटी का बाप नहीं बना था,मैं किसी का बेटा भर था,अपनी ज़िन्दगी में मैने खूब घुमाई की ,खूब मस्ती की और संघर्ष भी खूब रहा खैर वो तो अब भी है ,बेटी के बाप बनने से पहले किसी प्रेमी जोड़े को कही छुपकर मिलते देखता या किसी झुरमुठ में बैठे देखता तो मेरे मन में आता कि जो भी प्यार करने वाले हैं उन्हें तो मिला ही देना चाहिये...मैं भी उन्हें कनखियों से देखकर उनके मज़े से थोड़ा मज़ा चुरा लेना चाहता था..पर बेटी के बाप बनते ही सारा नज़रिया बदल सा गया,अब तो हाल ये है कि जब किसी एकदम युवा जोड़े को कहीं गलबहियाँ डाले देखता हूँ तो मेरे अंदर कुछ अलग ही विचार आते है....... जैसे "ये लड़का तो लफ़ूट लग रहा है, कैसे लड़के को चुना है इस बच्ची ने" मन में आता है कि जाकर बता दूँ बच्ची के माँ बाप को, कि बिटिया को सम्भालिये, उसके साथ भी खेला कीजिये, उसके साथ भी कुछ समय गुज़ारिये,उससे भी बात कीजिये नहीं तो ये घूमती रहेगी चिर्कुटों के साथ और उसके साथ रहते रहते उसी चिर्कुट की तरह हो जाएगी... और आप हाथ मलते रह जाएंगे।


अब अगर मेरी बेटी रात को खेल कर समय से वापस नहीं आती तो चिंतित बाप पहुँच जाता है उसके खेलने की जगह और वहाँ वह देखना चाहता है कि बिटिया कैसे बच्चों के साथ खेल रही है, और आँख फ़ाड़ फ़ाड कर उन सबको अच्छी तरह देखता है....अगर उन दोस्तों में लड़के हैं तो देख कर एक्सरे करके पूरी तरह निश्चिंत हो जाना चाहता है कि बेटी जिन बच्चों के साथ खेल रही है वहाँ सब कुछ ठीक तो है, पर मन है कि हमेशा बिटिया को लेकर शशंकित सा बना रहता है।


जब बिटिया चाव से टीवी से सटकर किसी चैनल पर कोई हाना मोन्टेना का शो देख रही हो या हाई स्कूल म्यूज़िकल जैसा कोई विदेशी सीरियल देख रही हो तो ये बाप उसकी तल्लीनता में बिना बाधा पहुँचाए अपनी तरफ़ से उस सीरियल की जाँच पड़ताल मे जुट जाता है कि आखिर क्या बात है इन सीरियलों में जो खाना वाना छोड़कर इतनी तल्लीनता से देखती रहती है बिटिया? वो कार्टून आदि देखे,बच्चों को इस उम्र में जो करना है वो सब करे,हमारे सामने हमेशा बच्ची बनी रहे पर इन सब के बावजूद हमेशा डर सा बना रहता है कि बिटिया समय से पहले बड़ी तो नहीं हो रही है ?


जो एक बात मुझे निजी तौर पर लगती है कि हम बिटिया के बाप लोग भले ही बड़ी बड़ी बाते करें, अपने और बिटिया के सम्बन्धों को लेकर शायद एक आदर्श स्थिति बयां करते रहें कि घर में बिटिया को लेकर महौल बड़ा हंसी खुशी का बना रहता है,पर इन सब के बावजूद... एक बात जो मेरे मन में स्थाई भाव सा बना रहता है कि क्या हम बिटिया के बाप-माँ कुछ ज़्यादा ही शंकालु तो नहीं हो हो गये हैं कि शायद ये स्थिति सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे साथ ही है या दुनिया के सारे माँ बाप कुछ ज़्यादा प्रगतिशील हैं? कि शायद हमारे मन में ही पिछड़ापन पसरा हुआ है, या कि हमारे अंदर अभी भी सामंती अवशेष हैं जिनकी वजह से हमारी सोच ऐसी हो गई है.......पता नहीं ये कुंठा है या किसी प्रकार की शंका? कि बेटी का बाप होना और बेटे का बाप होना क्या दो अलग अलग बाते हैं?

चकित कर दिया है तोषी ने




लाहौर के एक वेब साईट पर छपी सूचना

The Alliance Française de Lahore (French Centre- Lahore) is hosting an exhibition of drawings titled “Lahori Bachchey” by Vidha Saumya। Vidha Saumya graduated from Sir J।J. School of Fine Arts specializing in Painting in 2005. After a year’s break during which she traveled, did freelance assignments and read, she joined Srishti School of Arts, Design and Technology in July 2006 to study Visual Communication Design. The South Asia Foundation Scholarship was a dream come true for her, because it enabled her to come to the city of Lahore. She is currently on an independent study Program at Beaconhouse National University.


She has been in Lahore for 6 months now. Being away from her own country in a new place made her conscious and attentive of what she noticed around her.
What distinguishes the children here from the children elsewhere?
She has tried to maintain the nuances of their identity. This particular age group of children interests her the most because they present themselves oblivious of the correctness of appearance. The naivety pulls you towards the stories that surround tem and engages you into a conversation with them.
This series is a conscious effort to express this place from her point of view demonstrating that these children have been her muse on a daily basis and that the worlds in which they lose themselves and the realities that they are aware of।

डेली टाइम्स में छपी रपट

Lahori Bachay sketched
Staff Reporter

LAHORE: An exhibition of drawings, Lahori Bachay, by Indian artist Vidha Saumya opened at the Alliance Française Gallery on Thursday।The work is mainly based on her personal experience of Lahori children. She maintains the shade of the identity of the children she has drawn. This particular age group of children attracts her the most, because to her, they present themselves oblivious to the correctness of appearance. The naivety pulls viewers towards the various stories and engages one into a conversation with the children on canvas. The work speaks volumes about those children who have to do petty jobs to support their families. Uniqueness of the work lies in the artist’s skill of capturing minute details of the figures। Embroidery on dresses, clothe patterns and even shoe styles are clearly visible. The artist has cut the paper in such a fashion that the focus is entirely on the figure, that catches the viewers’ attention owing to its subtlety. David Alesworth, an art critic said, “The work is a quickie, but interesting. All the work is done in grey scale and the drawings look like specimen. The artist has given the timing along with the captions of the drawings that give them a photographic look.” He said the work was illustrative and resembled caricatures. Former National College of Arts Principal Saleema Hashmi said the work was like vignettes. She said, “Each picture tells a separate story. A tip is given that can be developed into a complete story. Drawings are mosaics that combine to make a series telling an elaborated story of a city through its children.” Talking to Daily Times Saumya said, “My work is a series which is a conscious effort to portray the city in my point of view. These children have always been a centre of thought for me.”Saumya graduated from Sir JJ School of Fine Arts, India. She came to Lahore after obtaining a scholarship by the South Asia Foundation. She is currently on an independent study programme at the Beaconhouse National University. She has been residing in Lahore for the last six months. The exhibition will continue till March 1.
आज इतना ही कि यह सब देख-पढ़ कर मैं चकित हूँ.विधा का अगला प्रोजेक्ट है-बाजी चलीं सैर को




मेरी बेटी

आज कबाड़ख़ाने पर इब्बार रब्बी साहब की दो कविताएं पोस्ट कर रहा था तो जेहन में उनकी यह कविता लगातार गूंज रही थी। चलिए इस बहाने बेटियों के ब्लॉग में मेरी पहली एन्ट्री तो हुई।
मेरी बेटी

मेरी बेटी बनती है
मैडम
बच्चों को डांटती जो दीवार है
फूटे बरसाती मेज़ कुर्सी पलंग पर
नाक पर रख चश्मा सरकाती
(जो वहां नहीं है)
मोहन
कुमार
शैलेश
सुप्रिया
कनक
को डांटती
ख़ामोश रहो
चीखती
डपटती
कमरे में चक्कर लगाती है
हाथ पीछे बांधे
अकड़ कर
फ़्राक के कोने को
साड़ी की तरह सम्हालती
कापियां जांचती
वेरी पुअर
गुड
कभी वर्क हार्ड
के फूल बरसाती
टेढ़े मेढ़े साइन बनाती

वह तरसती है
मां पिता और मास्टरनी बनने को
और मैं बच्चा बनना चाहता हूं
बेटी की गोद में गुड्डे सा
जहां कोई मास्टर न हो!

और अब चुलबुल की बातें

रश्मि

रश्मि पवन एक दूसरे के हमसफ़र हैं और चुलबुल उनकी बेटी। एक समय था, जब हम और पवन साथ रहते थे। सुबह आंख खुलने से लेकर शाम की शराब तक। तब रश्मि और पवन प्रेम की आखिरी गली पार कर रहे थे। वैलेंटाइन डे और रश्मि के बर्थडे में पवन एक बड़ी पार्टी ऑर्गनाइज़ करता था। बाद में हालात ने हमें शहर दर शहर भटकाया, लेकिन पटना में पवन की डिमांड बढ़ती रही। वह आज राष्‍ट्रीय स्‍तर का कार्टूनिस्‍ट है। हिंदुस्‍तान अख़बार के लिए कार्टून बनाता है। रश्मि पटना विश्‍वविद्यालय की लाइब्रेरी में वक्‍त गुज़ारती है। चुलबुल इन दोनों के प्रेम की एक मज़बूत कड़ी है।

अविनाश

बेटियों का ब्लॉग। यानि बेटियों की बातें। अपनी भी एक बिटिया है। नाम चुलबुल। उम्र 3 साल। वह क्या आयी, जिन्दगी ही चुलबुला गयी है। 'माँ सुनो एक बात... माँ देखो तो सही... माँ कुछ आईडिया लगाओ... पापा को तो कुछ भी समझ नही आता है... देखो पापा सब के सामने प्यारी ले रहे हैं...' कितनी ही ऐसी आवाजें दिन-रात हमारे घर मे गूंजा करती है। चुलबुल जब पैदा हुई, तो उसके एक-एक दिन की हरकतें हमें वैसे ही अचरज मे डाला करती थी, जैसे आज 'अविनाश-मुक्‍ता' को। बाबूजी उसकी दिन-रात बनती-बिगाड़ती हरकतों को देख अक्सर मुझसे कहते... "रश्मि लिखा करो तुम... इसकी एक-एक बातो को..." तब मैं मुस्करा दिया करती थी। और मुस्कुराते-मुस्कुराते ही तीन साल निकल गये। कभी-कभी अफ़सोस भी होता, लेकिन इस ब्लॉग ने मेरे अंदर की डायरी के पन्ने ही खोल दिये मानो।

आज चुलबुल स्कूल जाने लगी है। अब तो उसके पास ढेर सी बातें हुआ करती हैं। "माँ आज नंदनी नही आयी... अंसिका को मैम दाति..." और भी बहुत सी बातें। कार्टून की लाइनें खीचने मे माहिर है। कल्पनाएं भी उतनी ही अद्-भुत। "इसकी मम्मी छोर कर चली गई है इसलिए रो रहा है..." तो कभी ख़ुद को आइसक्रीम खाने को न मिले तो कार्टून की शक्ल मे बना कर बोलेगी, "देखो गन्दा देखो ठंड मे आइसक्रीम खा रहा है।" कार्टून सच मे चुलबुल बहुत बढिया बनाती है। अगली बार उसके बनाये कार्टून के साथ।

वेब दुनिया पर बेटियों का ब्‍लॉग

एक ब्‍लॉग है बिटिया रानी का

मनीषा पांडे

कहने को तो गीत, कविता, कहानियों, मुहावरों और किंवदंतियों में ‘राजदुलारा, आँखों का तारा’ जैसी बातें ही मिलती हैं। राजदुलारी पर गीत भले बहुत न हों, लेकिन बदलते मूल्‍यों और भावनात्‍मक संबंधों में बेटी की जगह बदल रही है, खासकर पिता की नजरों में। पिता और पुत्री का संबंध शायद बाप-बेटे के रिश्‍ते से कहीं ज्‍यादा कोमल और भावनात्‍मक होता है। निराला ने अपनी बेटी के अवसाद में पूरा काव्‍य ही रच डाला। बेटी पिता का प्‍यार है, दुलार है, वो उसके अधूरे सपनों की पूरी कड़ी है।

हिंदी ब्‍लॉगिंग के क्षितिज का निरंतर विस्‍तार हो रहा है। इसी कड़ी में एक नई सार्थक पहल की है, ऐसे पिताओं ने मिलकर, जिनकी आँखें अपनी बेटी की किलकारियों से रौशन हैं। अपनी राजदुलारी के हर नन्‍हे कदम, हर किलकारी और उसकी आँखों में झिलमिलाती हर रौशनी को शब्‍दों में उतार देने के लिए। यादें दिल में ही न रह जाएँ, वो पन्‍नों पर उतरें और सदा के लिए अंकित हो जाएँ।

ब्‍लॉग की शुरुआती भूमिका में अविनाश लिखते हैं, ‘ये ब्‍लॉग बेटियों के लिए है। हम सब, जो सिर्फ बेटियों के बाप होना चाहते थे, हैं, ये ब्‍लॉग उनकी तरफ से बेटियों की शरारतें, बातें साझा करने के लिए है।’

कहने को तो गीत, कविता, कहानियों, मुहावरों और किंवदंतियों में ‘राजदुलारा, आँखों का तारा’ जैसी बातें ही मिलती हैं। राजदुलारी पर गीत भले बहुत न हों, लेकिन बदलते मूल्‍यों और भावनात्‍मक संबंधों में बेटी की जगह बदल रही है, खासकर पिता की नजरों में।
बेटियों के इस ब्‍लॉग में कहीं नन्‍हे पाँवों के निशान हैं, तो कहीं नन्‍हीं उँगलियों की छाप। कहीं मासूम तुतलाहट है, तो कहीं आत्‍मविश्‍वास से भरा नन्‍हा-सा सुर। कस्‍बा वाले रवीश कुमार, कबाड़खाना के कबाड़ी अशोक पांडे, मोहल्‍ला फेम अविनाश समेत इरफान, अजय ब्रम्‍हात्‍मज, राजकिशोर, प्रियंकर, नसिरुद्दीन, विमल वर्मा, राकेश और पुनीता समेत कई लोग इस ब्‍लॉग के सदस्‍य हैं। सभी के दिल बेटियों के प्रेम लदबद हैं और पुनीता एक बेटी की माँ और खुद एक बेटी हैं। उन्‍होंने एक बेटी के रूप में अपने अनुभवों और अपनी बेटी के किस्‍सों से ब्‍लॉग को गुलजार किया है।

अविनाश, जो हाल ही में पिता बने हैं, के पास बताने को ढेरों बात हैं, ‘अभी जाड़ा है। श्रावणी कपड़ों से पैक रहती है। गर्मी होती तो अब तक पलटी मार देती। अभी आँधी की तरह पाँव फेंककर काम चलाती है। अँगूठा चूसने की कोशिश कर रही है। मुक्‍ता रोमांचित होकर उसका अँगूठा मुँह के भीतर डालने लगती है। पर बाबूजी गुरु गंभीर होकर बोलते हैं - जीवन को उसके सहज प्रवाह में रहने दो। अपनी तरफ से उसे मोड़ने की कोशिश मत करो।'

रवीश की बिटिया अपने पापा को रेपिडेक्‍स की तरह बंगाली सिखाती है और पापा किसी आज्ञाकारी बच्‍चे की तरह सीखते भी हैं, ‘तिन्नी गुस्सा गई। बोली कि बाबा तुम मेरे साथ बांग्ला बोलो तो। मैंने कहा, मुश्किल है। तिन्नी ने कहा बेश आशान है। चलो मैं सिखाती हूँ। जब मैं बोलूँगी कि बाड़ी ते चॉप बनानो होए छे। तो तुम बोलोगे- के बानिये छे। फिर मैं बोलूँगी- नानी बानिये छे। चार साल की बेटी ने एक मिनट में रैपिडेक्स की तरह बांग्ला के दो वाक्य सिखा दिए। तिन्नी कहने लगी, बाबा तुमी आमार शंगे बांग्ला बोलो। भाल लागबे।'

इन किलकारियों के बीच कहीं आँखें भी कर आती हैं, जब राजेश जोशी की एक बेहद मार्मिक कविता की ये पंक्तियाँ आँखों के सामने से गुजरती हैं :
तुमने देखा है कभी
बेटी के जाने के बाद कोई घर?

जैसे बिना चिड़ियों की सुबह हो!
जैसे बिना तारों का आकाश!

बेटियाँ इतनी यकसाँ होती हैं,
कि एक की बेटी में दिखती है, दूसरे को अपनी बेटी की शक्ल

चौथे की बेटी जब बैठकर चली गई कार में,
तो लगा जैसे ब्रह्मांड में कोई आवाज़ नहीं बची।

एकाएक अपनी उम्र लगी हम सबको
अपनी उम्र से कुछ ज़्यादा।
नसिरुद्दीन नन्‍दकिशोर टहवाल की एक कविता के बहाने अपनी बात कहते हैं :
बोए जाते हैं बेटे
उग आती हैं बेटियाँ

खाद-पानी बेटों में
पर लहलहाती हैं बेटियाँ

एवरेस्ट पर ठेले जाते हैं बेटे
पर चढ़ जाती हैं बेटियाँ

रुलाते हैं बेटे
और रोती हैं बेटियाँ

कई तरह से गिराते हैं बेटे
पर सँभाल लेती हैं बेटियाँ।
इस ब्‍लॉग से गुजरते कई बार मासूम मुस्‍कुराहटों के बीच आँखें भी भीग जाती हैं :
बिटिया समुद्र होती है
उसे कुछ भी दो वह लौटा देगी
उसे याद करो न करो
वह बार-बार आकर करती है सराबोर
हमारे तटों को

अनगिनत रहस्य अपने में समेटे
बिटिया होती है दो तिहाई भाग
हमारे घर का...
अजय ब्रम्‍हात्‍मज जब कहते लिखते हैं कि मधुमेह से ग्रस्‍त पिता को बेटी रसगुल्‍ला नहीं खाने देती, तो बेटी के लिए उनका प्‍यार और पिता के लिए बेटी की चिंता दोनों ही झलकते हैं। फिलहाल रसगुल्‍ला तो नहीं मिलता, लेकिन अपनी प्‍यारी बिटिया रानी के लिए वो झींगा जरूर पकाते हैं।

राकेश को उलझे, घुँघराले बालों में चोटी बनाने का कोई अनुभव नहीं है। लेकिन हर सुबह स्‍कूल के लिए तैयार करते बिटिया की चोटी बनाने का अनुभव राकेश कुछ यूँ बयान करते हैं, 'अब दस मिनट तक तो उसके घुँघराले बालों को, जिसे वो मैगी कहती है, कंघी से सीधा करना पड़ता है और तब जाकर कहीं उसमें रबड़ लग पाता है. पर मेरी खीझ पर उसका धैर्य अकसर भारी पड़ता है. बोलती है, 'पापा, मैं सिर नहीं हिलाउँगी तुम मेरी चोटी लगा दो'. रबड़ को वो चोटी कहती है.'

पिता बिटिया की चोटी बना रहे हैं, उसका मनपसंद खाना बना रहे हैं। बिटिया की जिद है, माँ नहीं, पापा के ही हाथ का खाना है। और पिता इस जिद से खुश हैं। इनमें बहुत से ऐसे भी पिता होंगे, जो अपनी पत्‍नी के लिए शायद बहुत सामंती पति हों, लेकिन बिटिया के लिए बिल्‍कुल सच्‍चे, सीधे, कोमल पिता हो जाते हैं।

रिश्‍ते बदल रहे हैं, मूल्‍य, विचार भावनाएँ सबकुछ। मुझे याद नहीं कि मेरे पिता ने कभी मेरी चोटी की हो। ये सारे काम हमेशा से माँ के ही जिम्‍मे रहे। आज के पिता ज्‍यादा समझदार और संवेदनशील हैं। वो पिता होने के सुख और दायित्‍व दोनों को समझ रहे हैं। और यह दायित्‍व कोई बोझ नहीं, बल्कि इसमें भी एक आनंद है। यह आनंद बदलते वक्‍त के संवेदनशील पिताओं के व्‍यवहार और उनके शब्‍दों में झलकता है। इसी का परिणाम है, यह ब्‍लॉग जो बदलते वक्‍त की ढेरों सुगबुगाहटों में अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा रहा है।

बेटी पिता को ज्‍यादा मनुष्‍य बनाती है, ज्‍यादा गहरा और कोमल। वह उसे इंसान बनाती है। बेटियाँ पिता को बदलती हैं।

रवीश यह स्‍वीकार भी करते हैं, ‘मेरी बेटी हर दिन मुझे बदल देती है। आज ही दफ्तर से लौटा तो स्वेटर का बटन बंद कर दिया। चार साल की तिन्नी ने कहा कि ठंड लग जाएगी। बाबा तुम एकदम पागल हो। बेटियों को ख्याल करना आ जाता है। बस हम लोग यानी पुरुष पिता उस ख्याल को अपने अधिकारों से नियंत्रित कर नियमित मज़दूरी में बदल देते हैं। छुट्टी के दिन वही तय करती है। कहती है, आज बाबा खिलाएगा। बाबा घुमाएगा। बाबा होमवर्क कराएगा। मम्मी कुछ नहीं करेगी। मैं करने लगता हूँ। वही सब करने लगता हूँ, जो तिन्नी कहती है। मैं बदलने लगता हूँ। बेहतर होने लगता हूँ। बेटियों के साथ दुनिया को देखिए, अक्सर मन करता है इसे इस तरह बदल दें। इसके लिए खुद बदल जाएँ।'

बेटियों का यह ब्‍लॉग सचमुच एक क्रांतिकारी कदम है। यह बदलती दुनिया की सुगबुगाहट और उसका दस्‍तावेज है। बेटियों का स्‍थान बदल रहा है, बेटियाँ पिताओं को बदल रही हैं। बेटियाँ दुनिया को बदल रही हैं। बेटियाँ खुद भी बदल रही हैं। चीजें बदल रही हैं। हमें इसके सुंदर, और सुंदर होते जाने की उम्‍मीद है।

एक और बेटी आई है

मोहल्ला के सदस्य और दैनिक भाष्कर के पत्रकार संजय मिश्रा के घर एक बेटी आई है। उनकी पत्नी ने इच्छा ज़ाहिर की थी कि दुबारा बेटी ही आए। दिल्ली से सटे ग़ाज़ियाबाद के यशोदा अस्पताल में बेटी का जन्म हुआ है। मां ठीक है। जल्दी ही इस नए मेहमान की किलकारियां बेटियों के ब्लाग पर गूंजने लगेंगी।

मित्रों 'फैशनेबल लड़की' की तस्वीर ....

परसो मैंने किलकारी के चोटीप्रेम पर एक पोस्ट किया था. कुछ मित्रों ने कहा था पोस्ट के साथ तस्वीर भी क्यों न डाल दिया मैंने. तो आज मैं कुछ तस्वीरों के लिंक दे रहा हूं. यहां क्लिक करें.

क्या ट्रेन भी मेकअप करती है?

दस साल पहले की बात होगी.पटना से मुम्बई आया था.उन दिनों ट्रेन का देरी से पहुँचना स्वाभाविक बात मानी जाती थी.हम भी देर से पहुंचे थे.असल में पटना से ही ट्रेन देर से खुली (बिहार में हमलोगों की ट्रेन हमेशा खुलती थी,अब यह छूटती है) थी.लगभग आठ घंटे देर से.हम विभा को सब कुछ बता रहे थे.यात्रा की इस बातचीत के दरम्यान हमने कहा -लेकिन ट्रेन ने रास्ते में मेकअप कर लिया था.हमारी बातचीत को गौर से सुन रही कोशी से रहा नहीं गया और उसने तपाक से अपनी माँ से पूछा,'क्या ट्रेन भी मेकअप करती है?'
कोशी के उस मासूम सवाल ने तब भी हंसाया था और आज किस्सा चलने पर वह ख़ुद भी हंसती है और हम सभी खुशी और हँसी से सराबोर हो जाते हैं.

कारी को चोटी लगा के उच्छूल भेजना

पिछले हफ़्ते से, जब से ठंड कम पड़ने लगी है, किलकारी ने जैकेट से तो जैसे पिंड ही छुड़ा लिया है. जब भी कभी कोशिश की जाती है उसे जैकेट पहनाने की, बोलती है, 'नहीं, कारी जैकेट नहीं पहनेगी, ठंड कम हो गयी है'. साथ में क्रेश वाले अपने मित्रों का नाम गिनाने लगती है, 'अन्नी भी नहीं पहनता जैकेट, नैना भी नहीं पहनती, क्वीन भी नहीं पहनती, दिवांछी (दिव्यांशी) भी नहीं पहनती है'. क्षण भर में कई मर्तबा वो अपनी ये दलील दुहरा देती है. मतलब ये कि अब उसने जैकेट तज दिया है. टोपी भी तज दिय है साथ में. हम उसे मंकी कैप पहनाते थे. दोनों कामकाजी होने के कारण हमारी ये कोशिश होती थी कि चाहे कपड़े का वजन उसे झेल लेना पड़े लेकिन उसकी तबीयत के कारण हम न झेलें. डांट-डपट के सहारे हमने पिछले हफ़्ते तक अपने हिसाब से उसको रखा. पर अब किलकारी ने साफ़ इंकार कर दिया हमारे धौंस को मानने से.
करीब साल भर से उसके बाल भी नहीं कटवाए गए हैं. सर्दी शुरू होने तक तो केवल कंघी कर देने से काम चल जाता था लेकिन अब जब उसने टोपी उतार दी है तो केवल कंघी से बात बनती नहीं. अब उसकी चोटी बनायी जाती है. चोटी बनाने का पुराना कोई अनुभव न होने के बावजूद ये काम लगभग मेरे जिम्मे ही आ गया है. उसने अपने लिए बालों में लगाने वाले रबड़-बैंड ख़रीदवाए हैं. अब दस मिनट तक तो उसके घुंघराले बालों को जिसे वो मैगी कहती है, कंघी से सीधा करना पड़ता है और तब जाकर कहीं उसमें रबड़ लग पाता है. पर मेरी खीझ पर उसका धैर्य अकसर भारी पड़ता है. बोलती है, 'पापा, मैं सिर नहीं हिलाउंगी तुम मेरी चोटी लगा दो'. रबड़ को वो चोटी कहती है.
और तो और रात को सोते वक़्त जब चन्द्रा उसके रबड़ निकलाने लगती है तो वो अपना दोनों हाथ चोटी पर रख लेती है और कहती है, 'कारी अपे-आप निकाल लेगी चोटी'. इस तरह रबड़ निकालती है और अपने सिराहने रख देती है और कहती है, ' कल कारी को चोटी लगा के उच्छूल (क्रेश) भेजना'.
आज बुधवार है. चोटी को लेकर उसके तरह-तरह के प्लान हैं. रबड़ और क्लिप उन प्लानों में सबसे अहम है. कल वो कह रही थी, 'मम्मी बुध बजार चलो न, कारी के लिए चोटी और क्लिप ले आएंगे'. समझाया गया कि बुधवार कल यानी आज है और तसल्ली दिलाया गया कि उसके लिए रबड़ और क्लिप आज ज़रूर ख़रीदे जाएंगे.
पिछली रातउसने स्कर्ट को लेकर भी तान छेड़ दिया. दो-चार दिनों के अंदर ही स्कर्ट को भी अलमारी के बाहर आना ही होगा.

राग तिन्‍नी

आज कुछ कहने के लिए नहीं है।
बस सुनना है।
तिन्‍नी को।
तिन्‍नी गा रही है।
राग दुरुस्‍त है।
सुनिए ज़रा...


एक बेटी की मां का हलफनामा

मैं छह साल की बेटी की मां हूं और दूसरे की उम्मीद से हूं। पूरे आठ महीने गुजर चुके हैं और अब कभी भी मैं मातृत्व सुख ले सकती हूं। आठ महीनों के दौरान मन में उठे हर हलचल को ईमानदारीपू्र्वक दर्ज कर रही हूं, वैसे यह बिल्कुल निजी अनुभव है।

मेरा जीवन बहुत ही मजे से चल रहा था। मैं अपनी बेटी पर सारी खुशियां लुटा रही थी। तभी, कहीं से आहट हुई किसी के आने की। आहट बिल्कुल अपनी थी इसलिए उसे नजरअंदाज कर पाना असंभव सा जान पड़ रहा था। डाक्टरनी ने बड़े प्यार से मुझे समझाया कि तुम अपनी बेटी की खातिर ही इस बच्चे को जन्म दो। मैं अपने पति और बिटिया के बीच किसी तीसरे को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करती हूं इसलिए मुझे इस बच्चे को अपनाने में दो से तीन महीने लग गए। और पूरा समय मैं खुद को और अपनी बिटिया को समझाते हुए गुजारी कि यह तुम्हारा बच्चा है। तुम्हें ही इसका ख्याल रखना है और तुम्हें ही उसे प्यार करना है क्योंकि मैं और पापा ने तो सारा का सारा प्यार तुम्हें दे दिया है। और उसके लिए कुछ बचा ही नहीं है. वह शायद यह बात समझ रही है और जब भी मैं औऱ श्रुति बातें करती हैं तो वह खुद ही बच्चे की जिक्र छेड़ती है। मेरे खाने का जिसमें फल हो, टॉफी हो और दवा का पूरा ध्यान रखती है। मेरे बहाने टॉफी खाती है क्योंकि बाबू को मन कर रहा होगा टॉफी खाने का। वह धीरे धीरे समझ रही है। उसकी समझदारी दिन प्रतिदिन बढ़ रही है जो मुझे हमेशा खलती है कि वो मेरी छोटी सी बेटी सयानी हो रही है। शायद समय से पहले। मां (दादी) ने कहा है कि अब श्रुति मेरे साथ ही सोयेगी। पर ये कैसे संभव है - आप समझ सकते हैं कि जो बच्चा पूरे छह साल साथ सोया हो वो मां को कैसे अलग कर सकता है।

यह बहुत कठिन दौर होता है एक मां बाप के लिए। शायद बेटा होता तो मैं दादी के पास सोने दे भी देती या फिर वह खुद ही चला जाता। पर श्रुति मेरे साथ ही सोयेगी चाहे नया बाबू दादी के साथ सोये। दूसरे बच्चे के अस्तित्व को स्वीकारना बहुत ही मुश्किल होता है।

मुझे बेटा या बेटी किसकी चाहत है?

गुजरे आठ महीनों में मैं अपने आप को तैयार करती आई कि बेटी होने पर मैं कितना खुश हूंगी और बेटा होने पर कितना। पैमाना ना होने के कारण मैं बता नहीं पाऊंगी पर फिर एक बार ईमानदारीपू्र्ण कोशिश रहेगी खुद की अदालत में अपने को पेश करने की।

बेटी मुझे क्यों चाहिए-

1. बेटी मुझे इसलिए चाहिए क्योंकि शायद मैं बेटा नहीं पैदा कर पाऊं.

2. बेटी अच्छी होती है, दिल के करीब होती है. मां को ज्यादा समझती है.

3. मैं एक बेटी हूं और बेटियों को समझती हूं.



बेटा मुझे क्यों चाहिए-

1. बेटा - बेटा मुझे नहीं चाहिए.

ये पलायनवादी नीति के तहत मैं नहीं लिख रहीं हूं. सचमुच मुझे बेटा नहीं चाहिए.

मैं यह अच्छी तरह जानती हूं कि बेटा मुझे जन्म के समय ही दो पल की खुशी देगा और फिर ताउम्र ....

उन सारे लोगों से माफी मांगते हुए अपनी बात को आगे बढाऊंगी जिनके सिर्फ बेटे हैं. ( कोई भी इस बेटा, बेटी की चाहत को दिल से ना ले। बस ये सिर्फ भावना है एक गर्भवती महिला की या फिर बेटा ना हो पाने का डर। ये आपकी अपनी समझ पर निर्भर करता हैं। )

एक औऱत अपने कोख को साबित करने के लिए ही सिर्फ और सिर्फ बेटा पैदा करना चाहती है।

मेरी श्रुति जब होने वाली थी तो मैंने बेटे की चाहत में नौ महीने बिताए। मुझे बेटा ही होगा ऐसा ही मेरा विश्वास था। और जब डाक्टर ने मुझे बताया कि मुझे बेटी हुई है तो एक पल, सच सिर्फ एक पल, के लिए मैं दंग रह गई थी। अपने को संभाला और फिर उस पल के बाद मुझे कभी बेटी होने का गम नहीं हुआ.

पर मैं कभी भी उस पल के लिए अपने आप को माफ नहीं कर पाती हूं। मुझे खुद से लज्जा होती है कि मैने जाने अनजाने बेटे को महत्व दिया। अपनी बेटी को एक पल के लिए भुला दिया।

प्रेगनेंट वुमन को एडवाइजरों की कमी नहीं होती. सभी एड़वाइस देते रहते हैं औऱ कुछ खास औरतें उस वुमन पर पैनी निगाह भी रखती हैं। जैसे वह क्या खाना ज्यादा पसंद करती है - खट्टा या मीठा। शरीर में फुर्ती है कि नहीं, पेट के साइज पर भी बड़े आसानी से वह दावा करती हैं कि बेटा होगा या बेटी। वैसे लोगों की नजरों से मैं भी यदा कदा गुजर ही जाती हूं और मुझे सांत्वना मिल ही गई है कि मुझे बेटा होगा। नो डाउट मैं भी कुछ दिनों के लिए खुश हो गई कि चलो बेटा हो जाए तो गंगा नहा लूं। पर ये क्या मैं तो डिसाइड़ ही नहीं कर पाती कि क्या होने से मैं ज्यादा खुश होऊंगी। क्योंकि मैं यही चाहती हूं कि मुझे बेटा हो या बेटी जो भी हो वो मेरी श्रुति की ही तरह हो।

पिता के नाम एक बेटी का पत्र

हमारे ब्लॉगजगत की एक महिला ब्लॉगर ने इस ब्लॉग के लिए मुझे एक पत्र भेजा है और निवेदन किया है इसे बेटियों वाले ब्लॉग पर प्रकाशित किया जाए। इन्होने बेटियों की तरफ़ से अपनी बात कहने की कोशिश की है। मै उनके पत्र मे किसी भी तरह का संपादन न करते हुए, उसको ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहा हूं।
आदरणीय पापा जी,
सादर चरण स्पर्श

पापा जी मेरा यह पत्र आप तक नही पहुंचेगा, मै यह जानती हूं। फिर भी लिख रही हूं इस आशा में कि शायद आप पढ़ लें। पापा जी, आप जानते हैं, आप जो हर बात पर यह कहते हैं, कि मै बेटी का बाप हूं, यह बात मुझे बहुत अखरती है। क्‍यूंकि आपके कहने का लहजा मुझे पसन्द नही है। आप जानते हैं, क्या बीतती है मुझ पर? या क्या आप कभी जानने कि कोशिश करते हैं? नही न! मै जानती हूं। हां, अब तक मै यह समझ गयी हूं कि बेटी का बाप होना बहुत ही जिम्मेदारी का काम है। पर पापा जी मै आपको यक़ीन दिलाना चाहती हूं कि, मै आपकी जिम्मेदारियों मे आपका हाथ बटाऊंगी। आपकी सभी परेशानियों का समाधान भले ही न बन सकूं लेकिन अपनी तरफ से पूरा कोशिश करूंगी। मै हमेशा से यह जानती आयी हूं कि आप मेरी जगह एक बेटे को देखना चाहते थे। इसलिये मेरा होना आपको पसन्द नहीं। लेकिन अब मेरा जन्म हो ही चुका है तो इसमे मेरी कोई भूल नही। मै भी आपका ही अंश हूं। फिर ऐसा क्या है, जो एक बेटा कर सकता है और मै नहीं कर सकती? ऐसा भी नही है कि अब तक मैने जो किया है उस जगह बेटा होता तो इससे ज्यादा करता। उदाहरण के तौर पर अपने चचेरे भाइयों को जब मै देखती हूं तो लगता है मै उनसे कही ज्यादा उड़ सकती हूं। फिर भी आप मेरे पंख बांधे रखना चाहते हैं। भाई की छोटी से छोटी सफलता पर जहां आपका सर गर्व से उठ खड़ा होता है, वहीं पर मै आपको दिखती तक नही? मेरा मन तब यह जानने को इच्‍छुक होता है कि क्या आपके ही इस अंश को जीने का कोई हक नही?

पापा जी, बचपन से आप मेरे आदर्श रहे। दादा जी आपके किस्से हमेशा सुनाते थे। वो हमेशा कहते कि आप समाज की परवाह नही करते थे। बहुत मेहनतकश इंसान थे। जब भी कोई निश्चय कर लेते ते तो उसे पूरा करके ही दम लेते थे। मेरे मष्तिस्क पर इन कहानियो की अमिट छाप रही। और मै भी आपके नक्शो-कदम पर चलने के लिये उतारू हुई। पर यह क्या?? जब मेरे उड़ने का वक्त आया, आपको समाज का भय खाने लगा। जब मै अपनी राह पर बढ़ने को उतारू हुई, आपके अपने ही विचारों के बन्धन ने मुझे बांध लिया। आपने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि क्या मै उसी इंसान की बेटी हूं जो मेरा आदर्श है? या आदर्श सिर्फ पुरूष समाज के लिए ही है। कुछ कर गुजरने की क्षमता सिर्फ पुरूषों की ही धरोहर होती है, हमारा उस पर कोई हक नही है? फिर पापा जी आप किस समाज से लड़े? यह समझना बहुत ही मुश्किल है, उसी समाज से आपकी ही बोली बोलेगा, या फिर वो समाज जिसे आपने अपने विचारों से बनाया तो और उसी के अधीन हो गये? इन दोनों में से कोई भी बात सच हो तो लगेगा कि मेरा हीरो कोई और ही था। लेकिन आज भी मै अपनी बात पर अडिग हू। आप ही मेरे हीरो हैं, और मै अपनी इस बात को साबित करने के लिए, इतनी मेहनत करूंगी, कि एक दिन आप भी गर्व से सर उठा कर अपनी बनी बनायी इस समाजिक परम्परा का बहिष्कार करेंगे, जो कहता है बेटी का बाप होना जिम्मेदारी का काम है। मै इस समाज को मजबूर कर दूंगी यह कहने के लिए आप इस समाज के हीरो है जो नया रास्ता बनाता है। सिर्फ बनाता ही नहीं उस पर सफलता से चल कर भी दिखाता है।

मेरा हर कदम सिर्फ आपके लिए ही होगा।
आपकी बेटी

लाहौर में तोषी की एकल प्रदर्शनी



ऊपर तोषी की एकल प्रदर्शनी का आमंत्रण पत्र है।

मुझे आप सभी को यह बताते हुए अत्यंत ख़ुशी हो रही है कि तोषी की एकल प्रदर्शनी लाहौर में २१ फरवरी से शुरू हो रही है.उसने लाहोरी बच्चे नाम से रेखांकन की एक सीरीज़ तैयार की है.उसने अपने नज़रिये से लाहोरी बच्चों को देखा है.उसने आमंत्रण पत्र में लिखा है ...

this series ia a conscious effort to express this place from my point of view।these children have been my muse on a daily basis,the world in which they loose themselves and the realities that they are aware of...
यह तोषी उर्फ़ विधा सौम्या के लिए बड़ी कामयाबी है और भारत-पाकिस्तान के सांस्कृतिक रिश्तों में एक बहुत ही छोटी कड़ी है।
तोषी पिछले पांच महीनों से लाहौर में है.वहाँ की उथल-पुथल से वह नहीं घबराई और जब भी हमने लौट आने की बात की तो उसका जवाब हुआ...यहाँ भी तो लोग रहते ही हैं.

जोश 18 पर बेटियों का ब्‍लॉग

बेटियों के इस ब्‍लॉग से लोग अपनापा महसूस कर रहे हैं, ये हम पिताओं के लिए अच्‍छी ख़बर है। बहुत सारे दोस्‍तों ने (इनमें मां भी शामिल हैं और पिता भी) इस क्‍लब में शामिल होने की हसरत ज़ाहिर की है। कुछ ने हमें अपना लिखा भेजा भी है। हम उनसे वादा करते हैं कि उन सबके अनुभव यहां साझा किये जाएंगे, बस थोड़ी सी मोहलत दे दें। इस बीच ख़बर ये है कि अपने ब्‍लॉगर दोस्‍त गिरींद्र नाथ झा, जो कि इंडो एशियन न्‍यूज़ सर्विस से जुड़े हैं, उन्‍होंने जोश 18 में इस ब्‍लॉग के बारे में लिखा है। क्‍या लिखा है, आइए पढ़ते हैं।

ब्लॉग जो सिर्फ बेटियों का है!

11 फरवरी 2008
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस
गिरीन्द्र


नई दिल्ली। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इंटरनेट पर हिंदी की उपस्थिति इन दिनों लगातार बढ़ती जा रही है। ब्लॉग के जरिए तो इसमें और इजाफा हो रहा है। ब्लॉग जगत में इन दिनों एक नए तरह के ब्लॉग का उदय हुआ है। खास बात यह है कि इस विशेष ब्लॉग में केवल और केवल बेटियों की ही चर्चा हो रही है।

जी हां, ‘बेटियों का ब्लॉग’ एक ऐसा ही ब्लॉग है जहां ब्लॉगर माता-पिता अपनी बेटियों के बारे में बातें लिखते हैं। दरअसल, यह एक सामुदायिक ब्लॉग है जहां एक ही छत के नीचे कई ब्लॉगर माता-पिता इकट्ठा होकर अपनी बेटियों के बारे में तरह-तरह की बातें लिखते हैं।

फिलहाल इस ब्लॉग के ग्यारह सदस्य हैं। सभी लगातार ही अपनी घर के क्यारी की बिटिया के बारे में लिखते रहते हैं। इस ब्लॉग की चर्चा इन दिनों हर जगह हो रही है। काफी कम समय में यह ब्लॉग लोकप्रिय हो गया है।

इस ब्लॉग को शुरु करने वाले अविनाश ने अपने पहले पोस्ट में लिखा कि, “ये ब्लॉग बेटियों के लिए है। हम सब, जो सिर्फ बेटियों के बाप होना चाहते थे, ये ब्लॉग उनकी तरफ से बेटियों की शरारतें, बातें सांझा करने के लिए है”।

उन्होंने अपने इस पोस्ट का टाइटल रखा- ‘आइए बेटियों के बारे में बात करें’। इस ब्लॉग पर लिखने वाले सभी ब्लॉगर अपनी बेटियों के बारे सामान्य लेकिन रोचक रिपोर्ट प्रकाशित करते रहते हैं।

इसमें शामिल एक ब्लॉगर जितेन्द्र चौधरी का कहना है कि इसमें बेटियों के रोचक क्रियाकलापों को भी शामिल किया जाएगा। पत्रकार रविश कुमार अपनी पोस्ट ‘बाबा तुम बांग्ला बोलो तो’ में काफी रोचक अंदाज में बताते हैं कि चार साल की बेटी ‘तिन्नी’ उन्हें किस प्रकार बंगाली भाषा का ज्ञान दे रही हैं। बंगाली भाषा का ज्ञान बांटती अपनी बेटी के बारे में वह लिखते हैं कि वह उनसे कहती है कि, “चलो मैं सिखाती हूं। जब मैं बोलूंगी कि ‘बाड़ी ते चॉप बनानो होए छे’ तो तुम बोलेगे- ‘के बानिये छे’। फिर मैं बोलूंगी- ‘नानी बानिये छे’।

चार साल की बेटी ने एक मिनट में रैपिडेक्स की तरह बांग्ला के दो वाक्य सिखा दिए”।

एक ब्लागर पुनीता ने ‘क्या बेटियां पराई होती हैं’ के शीर्षक से अपनी बात कहने की कोशिश की है। शादी के बाद पिता के साथ एक भेंट को उन्होंने काफी अलग अंदाज में बयां किया है। इस तरह की कई रोचक पोस्ट इस ब्लॉग पर पढ़ने के लिए हाजिर हैं।

नए साल का गीत

यह है तोषी की तुकबंदी। उसने भाव व्यक्त किये और भालू, कोयल, गदहा और बिल्ली की इच्छाएं जाहिर कीं। थोडी मरम्मत की गयी और तुकबंदी हो गयी।
नए साल में भालू बोला
मैं तो बाल कटाऊं

नए साल में कोयल बोली
मैं तो पंख रंगाऊं

नए साल में गदहा बोला
मैं फिल्मों में गाऊं

बिल्ली को कुछ न सूझा तो
बोली म्याऊं म्याऊं

जंगल में पिकनिक

यह तुकबंदी मैंने तोषी के लिए की थी। उस समय वह दूसरी कक्षा में थी और उसे कोई कविता स्कूल में सुनानी थी। मुझे भी आश्चर्य होता है कि मैंने उसके बाद या पहले कोई तुकबंदी कैसे नहीं की।
जानवरों ने सभा बुलाई
चलो करेंगे पिकनिक भाई
हल्ला गुल्ला शोर करेंगे
आएंगे दीदी,चाचा ताई

सभी जानवर मस्त हो गए
पिकनिक की तैयारी में
बन्दर सूट पहन कर आया
और बंदरिया साड़ी में

हाथी आये, भालू आये
अपने साथ वे आलू लाये
आलू छोटे और बडे थे
शेर हिरन भी वहाँ खडे थे

बड़े जोर की भूख लगी थी
पर जंगल में आग नहीं थी
हाथी भालू सब चकराए
लकड़ी अब कैसे सुलगाएं

बिना आग के खाना कैसे
बिना खेत के दाना कैसे
फिर सब ने एक जुगत लगाई
गांव से लाओ दियासलाई

गांव भला अब जाये कौन
फंसने का खतरा उठाये कौन
गांव के आदमी बड़े दुष्ट हैं
जानवरों से बड़े रुष्ट हैं

इतने में आया खरगोश
छोटा था, पर बड़ा था जोश
बोला, गांव मैं जाऊंगा
और आग भी लाऊंगा

आई आग और उबले आलू
छक कर खाए बगुला भालू
पिकनिक में सब नाचे गाये
जंगल में खुशहाली लाये

एक बेटी की डायरी

अविनाश जी
एक बेटी हूं और एक बेटी की मां भी। कल रात मैंने बेटियों के ब्‍लॉग में थोड़ी सी जगह मांगी थी। आशा थी कि जगह मिल जाएगी। ब्लाग देखा, तो मेरी पोस्ट नहीं थी। थोड़ी निराशा हुई है। लगता है, शायद आपको मेरा मेल नहीं मिला है। इसलिए मेल फिर से भेज रही हूं।
पुनीता कुमारी


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क्या बेटियां परायी होती हैं?

मेरी शादी के आठ साल के दौरान दूसरी बार आज मेरे पापा मुझसे मिलने आये थे। पापा से मिली, तो मन हुआ, उनके हाथों को छू लूं। मगर... यह फासला 12 घंटे में भी तय नहीं हो पाया। अभी-अभी वे हरिद्वार के लिए रवाना हो चुके हैं और मेरा मन भरा हुआ है। लगता है अंदर से कुछ बह रहा। क्या बह रहा है? नहीं जानती हूं मैं। मन को खुश करने के लिए यादों को संजो रही हूं।

मेरे पापा टाटा स्टील में इंजीनियर हैं। उनके आंगन में पहले मेरी दीदी उगी। फिर मेरा नंबर आया। मेरे जन्म के ठीक सात साल बाद घर के आंगन में फिर से एक बेटी उग आयी। मेरी छोटी बहन के जन्म पर मेरे पापा ने पूरे मुहल्ले और रिश्तेदारों के घर यह कह कर मिठाइंयां बांटी कि उन्हें बेटा हुआ। जब रिश्तेदार व पड़ोसी मां के अस्पताल से लौटने पर कथित बेटे को देखने पहुंचे तो वहां बेटी को देखकर खूब हैरान-परेशान हुए। पर, पड़ोसियों व रिश्तेदारों को उल्लू बनाकर मेरे पापा बिंदास खुश थे।

मुझे याद है, जब मेरे पापा ने मुझे बिजनेस करने के लिए पांच लाख रुपये दे दिये। बिजनेस नहीं चला। पर, मेरे पापा ने इसके लिए मुझे कोई ताना नहीं दिया। मैंने जब अपने पसंद के लड़के से शादी की बात बतायी, तो भी उनकी हां मेरे हिस्से में आया।

याद करतीं हूं कि हरेक रविवार को कैसे मेरे पापा नाखून काट दिया करते थे। दूऱ घुमाने ले जाते और आते वक्त मैं उनकी पीठ पर सो जाती थी। मगर, आज मैं इतनी बड़ी हो गयी हूं कि उनका हाथ बढ़ कर छू नहीं पायी। पापा भी मेरी भावनाएं समझ नहीं पाये। पैर छूने के लिए झुकी, तो दूर हटकर आशीर्वाद दे दिया। लेकिन मुझे गले से नहीं लगाया। क्या बेटियां सचमुच परायी होती है?

लो भी हम भी आ गए...

अविनाश! निमंत्रण देने का धन्यवाद। बहुत ही अच्छे विषय पर ब्लॉग बनाया है। मेरा एक सुझाव है, फ़्लिकर पर एक ग्रुप शुरु कर दिया जाएं, जहाँ पर बेटियों के कार्यकलापों पर फोटो,ड्राइंग्स वगैरहा शेयर किए जा सकें।

लो जी, हम भी आ ही गए, बेटियो वाले ब्लॉग पर। मेरी भी प्यारी प्यारी दो बेटिया है, दिव्या(उम्र १४ साल) और रीत (उम्र सात साल), बड़ी वाली थोड़ी धीर गंभीर है और छोटी वाली ज्यादा चुलबुली। वो शायद इसलिए है कि बड़ी वाली काफी समय हमारे बड़े भाईसाहब के यहाँ ज्यादा समय पली बढी है। खैर...इस बारे में फिर कभी।

बेटा हो या बेटी, हमने कभी फर्क नही समझा। हमने उसको उसी तरह पाला पोसा है जिस तरह से लड़कों को पाला पोसा जाता है। यही कारण है कि मेरी छोटी बेटी जहाँ नृत्य संगीत मे रुचि रखती है, उतनी ही बाक्सिंग/कराटे/ताइक्वांडो मे भी। हालांकि इसके इस शौंक का अक्सर शिकार मै ही बनता हूँ। अब समाज मे भी धारणाए काफी कुछ बदल चुकी है, लेकिन अभी भी गांवो/छोटे शहरों मे बेटो को बेटियों से अधिक महत्व दिया जाता है। मेरे विचार से इसके सामाजिक/आर्थिक कारण भी रहे होंगे। भारत एक कृषि प्रधान देश है, लगभग एक तिहाई लोग खेती पर निर्भर है। खेती करना मूलत: मेहनत वाला काम होता है, इसलिए लोग अक्सर परिवार को चलाने के लिए लड़के को प्राथमिकता देते थे। इसका एक बड़ा कारण अशिक्षा भी था। लेकिन आज शिक्षा के प्रसार और समान अवसरों के चलते लोग अपनी धारणाएं बदलने लगे है। लेकिन अभी समय लगेगा। कम से कम पढे लिखे लोग अपनी विचारधारा मे बदलाव लाएं, यही सबसे बड़ी बात होगी।

आप लोगो से सम्पर्क बना रहेगा, आज जानबूझ छोटी सी पोस्ट लिखी है, ताकि आगे की पोस्ट के लिए कुछ मसाला बचा कर रख सकूं।