हाय रे ये बेटियाँ
तोषी और बिरियानी
तोषी टैब बहुत छोटी थी। मैंने नौंन वेज खाना शुरू ही किया था। बनाना आता नहीं था। आज भी बनने के नाम पर कंपकंपी छूट जाती है। तोषी टैब दूसरी या तीसरी क्लास में थी। मैंने उसके लिए चिकन बिरियानी बनी। पहली बार। परोसा। वह खाने लगी। वह खा रही थी और मैं उसे इस उम्मीद में देखे जा रही थी कि अब वह इसके बारे में कुछ बोलेगी। जब काफी देर हो चुकी और उसने दूसरी बार परोसन लेकर भी खाना शुरू कर दिया, लेकिन कुछ कहा नहीं, टैब मुझसे रहा नहीं गया। बड़ी आतुरता और उम्मिओद से भरकर मैंने पूछ, "बेटू, बिरियानी कैसी बनी है?" उसने एक बार बिरियानी को देखा, फ़िर मुझे, फ़िर बिरियानी को और फ़िर से मुझे। इसके बाद बड़ी गंभीरता से बोली- "हाँ, ठीक ही बना है। दो=चार बार और बनाने लगोगी तो अच्छा बनाने लग जाओगी। " आज थोडा थिक-ठाक ही बना लेती हूँबिरियानी, मगर जब कभी कोई प्रसंग आता है, ख़ास तौर से बिरियानी का, तो यह बात याद आती ही है। अब तो और
भी, जब वह लाहौर में है, बहुत अच्छा खाना बनाती है, दीवाली में उसने अपने दोस्तों के लिए ८० लड्डू बनाये तो एक दिन ३० लोगों के लिए दोसा सांभर चटनी बनाई। अभी होली में उसने अपने सभी दोस्तों के साथ न केवल होली खेली, बल्कि ४० लोगों को खाना बनाकर खिलाया। ५ किलो matan बनाया और रस पुए, दही बड़ी और जो सब उसने मुझे होली पर बनते देख हाय, वह सब कुछ। इतना स्वादिष्ट खाना बनाती है कि आप उंगलियाँ चाटते रह जाएं। मैंने तो उसे कह दुसे कह भी दिया कि उसकी शादी में मैं खाना बनाने valii नहीं रखने वाली।
ताज़िल गोलमई बाप, शाज़िलु बेटी
ताज़िल गोलमई एक समय एनडीटीवी इंडिया के क्राइम टाइम एंकर थे। प्राइम टाइम एंकर से ज्यादा लोग उन्हें जानते रहे हैं। आज कल आधी रात के बुलेटिन्स पढ़ते हैं। रिपोर्टर तो ख़ैर कमाल के हैं ही, किस्सागो भी लाजवाब हैं। ख़बर का कारोबार ख़त्म करके ताज़िल के साथ बातचीत में कैसे रात बीत जाती है, पता नहीं चलता। तस्वीर में न्यूज़ रूम के बीच में वे रंगदारी दिखा रहे हैं। इस छवि को अपने मोबाइल कैमरे में उतारा है क्राइम रिपोर्टर मुकेश सिंह सेंगर ने। वैसे छवि गोलमई ताज़िल की बीवी का नाम है। लेकिन यहां ताज़िल के साथ जो तस्वीर है, वो शाज़िलु की है। शाज़िलु ताज़िल की बेटी है। अदाओं के मामले में ताज़िल को पीछे छोड़ती शाज़िलु की ये छवि ख़ास तौर पर बेटियों के ब्लॉग के लिए हमने उड़ायी है।
मुलगी शिकली प्रगति झाली
"बेटियाँ जन्मती हैं/ उग जाती हैं, घास-फूस सी/ बढ़ जाती हैं, खर -पतवार सी/बेटियाँ जन्मती हैं और थाम लेती हैं आकाश को अपनी हथेली / भर लेती हैं इन्द्र धनुष को अपने ह्रदय में। बेटियाँ कभी भी नहीं रोतीं अपना रोना, उनकी रुलाई में है जग का क्रंदन/ बेटियाँ हंसती हैं और हंसा जाती हैं सारीकायनात को। " आये, हम भी उनके साथ हँसे, उनकी शिक्षा- दीक्षा में शामिल हो कर और कहें ही नहीं, बल्कि कर के दिखाए कि हाँ सही में, - 'मुलगी शिकली प्रगति झाली'।
मुझे साबित करने की जरुरत नहीं
अपने तय समय से तकरीबन १५ दिन पहले मुझे अस्पताल जाना पड़ा. रास्ते में भी क्या मैं तो ऑपरेशन थियेटर तक में, मेरे मन में यही दबी इच्छा थी कि मुझे बेटा ही होगा. बेटे से मुझे कतई प्यार नहीं है पर एक पल के लिए मैं चाहती थी कि कोई कहे तुम्हें बेटा हुआ है. बस इतनी ही देर के लिए मुझे बेटा चाहिए. जैसा कि मैं मानती हूं कि हर औरत अपनी कोख को साबित करने के लिए ही बच्चे जन्मती है. ठीक उसी तरह मैं भी अपने को सिर्फ साबित करने के लिए ही बेटा चाहती थी और यह भी चाहती थी कि वह बेटा फिर बेटी में बदल जाए.ऐसा संभव नहीं, यह हम आप जानते हैं पर सोच तो सोच है,
आपरेशन के दौरान गुजरने पर मन ड़रा हुआ था और कुछ सैकेंड के बाद ही मेरी डाक्टर ने जब बताया कि मुझे बिटिया हुई है और साथ ही उसकी रोने की दो हल्की सी आवाज जब मैंने सुनी तो मन झूम उठा. दो तीन मिनट बाद जब मैंने उसे देख- लाल रंग की गुडिया, टप टप बटन की तरह आंख खोले मुझे देख रही थी. और उसे फिर बाहर ले जाया गया. मैं बहुत खुश थी पता नहीं क्यों मुझे बेटे की याद भी नहीं आई. इतनी सुन्दर सी बेटी देख कर मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह मेरी ही बेटी है. आपरेशन तो दस मिनट में ही खत्म हो गया और बच्चे को नरसरी में रख दिया गया. मेरे पति, मेरी सास व ननद उसे केवल पांच दस मिनट के लिए ही देख पाए थे. मैं बाहर निकल कर सब से यही पूछ रही थी कि बहुत सुन्दर थी ना. सभी बहुत खुश थे और मैं सबसे ज्यादा खुश थी पता नहीं क्यों मैं बहुत खुश थी. शायद मैंने उस एक पल को जीत लिया था, जब मैने एक पल के लिए लड़का नहीं होने का अफसोस अपनी बड़ी बेटी के वक्त महसूस किया था. मैने अपने पिछले हलफनामें में यह स्वीकार किया था कि मैं एक पल के लिए बेटा नहीं होने के कारण क्षुब्ध हुई थी और फिर कभी नहीं हुई थी. पर इस बार मैं कुंठा मुक्त हो कर उस पल को जीत ली थी. ( किसी टिप्पणी थी कि वाह क्या प्रगतिशीलता है) पर अब मैं यह अनुभव करती हूं कि सचमुच दूसरी बेटी क्या तीसरी बेटी को भी बेटे होने की तरह अनुभव करना प्रगतिशीलता है. ( हम क्यों बेटे की ही सिर्फ इच्छा रखते हैं क्यों नहीं बेटी की इच्छा रख सकते. क्या आपने कभी सुना है कि बेटे होने पर किसी ने उसे नमक चटा कर मार दिया हो.)
दो दिन तो मैं बहुत खुश होती रही. कितने फोन आते रहे और ना जाने कितने जाते रहे. कई बार मजा आता तो कई बार सामने वाले का उत्साह में कमी देख दुःखी हो जाती थी। मन नहीं करता कि किसी दूसरे को फोन कर के बताए. पर क्या करें समाजिकता थी, नहीं बताते तो लोग कहना शुरु करते कि अच्छा लड़की हुई इसलिए नहीं बताया. और अगर बताते तो वहां से एक जैसा नीरस जवाब , चलो कोई बात नहीं, अपना का ख्याल रखना. मुझे ये कोई बात नहीं सुनकर इतनी कोफ्त होती थी कि क्या बतांऊ. किसी ने यह कहने की कम से कम हिम्मत नहीं कि अगली बार बेटा ही होगा. अपनी खुशी कम होती जा रही थी, मैं महसूस करने लगी. और फिर मैंने फोन पर बात करना ही बंद कर दिया. फिर बात हुई बेटी के पैदा होने पर जश्न मनाने की। जश्न के तौर पर दावत (पार्टी) की बात मां ने उठाई क्यों कि हमारे घर के सारे बच्चों कि पार्टी हुई है तो इसकी कैसे नहीं होगी. पर मुझे लग रहा था कि पार्टी करना मतलब यह साबित करना कि मैं दूसरी बेटी होने पर भी खुश हूं. मैं खुश हूं इसे मुझे साबित करने की जरुरत नहीं है.
फ़िर से बोलोगी झूठ?
सभी के लिए यह कविता
बहुत दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
बहुत दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
बहुत दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
बहुत दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अन्दर बहुत दिनों के बाद
धुआं उठा आँगन के ऊपर बहुत दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें बहुत दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की आंखें बहुत दिनों के बाद
फ़िर से बेटी?
अब यह नन्ही परी अपनी उम्र की यात्रा तय करते करते १०वी कक्षा तक पहुँच चुकी है। १२ मार्च से होनेवाली अपनी परीक्षा की तैयारी में लगी है, मगर मुझे अभी भी नही भूलता वह दिन, जब वह आई थी। कितनी समझदार हो गई है वह। मेरे दफ्तर से लौटने पर मेरी तबियत ख़राब देखती है टू मेरे हाथ से मेरा बैग, थैला ले लेती है, पानी ला कर देती है। अभी उसके दादा दादी आए थे, अपनी दादी की साड़ी धूप में डालने का काम बगैर किसी के कहे -सुने ले लिया था। सचमुच, कितनी प्यारी व समझदार होती हैं बेटियाँ।
तोषी के जन्म दिन पर ...
मेरी बिटिया तोषी का जन्म दिन ५ मार्च को था। मैं उसी दिन इसे इस ब्लाग पर डालना चाह रही थी, मगर नही हो पाया। वह पिछले सितम्बर, २००७ से पाकिस्तान के लाहौर में है। लाहौर से याद आता है 'जिन लाहौर नई वेख्या समझो वो जम्याई नही'। तोषी ने लाहौर देख लिया। आज अगर सीमा की बात नही रहती तो हम सब भी यह शहर देख पाते और इसकी माटी की खूबी को महसूस कर पाते। तोषी आर्टिस्ट है। अपनी पढाई के सिलसिले मे वह वहां है। जिस तरह का प्रेम, आदर, सम्मान स्नेह उसे मिल रहा है, अपनी प्रतिभा के कारण, अपनी शालीनता के कारण और सबसे बड़ी बात, अपनी भारतीयता के कारण, वह सोचने पर मज़बूर कर देता है कि काश, ये सीमाएं नही रहतीं। उसके जन्म दिन पर अपनी चन्द लाइनें । आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिन है । वह अभी अपनी दुनिया में कदम रख ही रही है, आज के दिन वह अपनी ताक़त को पहचाने और अपनी शक्ति से अपने साथ साथ औरों को भी ताक़त प्रदान करे। उसके यह कविता -
आओ तुम्हारे लिए बुन दूँ एक रात/ तारों से जगमगाती। /चाँद से नहाती/ सपनों से भीगी भीगी/ बहती हवाओं में इच्छाओं के झूमते-गाते झोंके/ मेरी बेटू, ओस से भीगीसुबह/ जब होगी/ तुम आँखें खोलोगी अपने सपनों के साथ/ तुम्हारी अलसाई आंखों के कोए से झाकेंगे गेंदे -गुलाब/ सूरज टैब अपने दामन से निकाल छोड़ जायेगा सतरंगी किरणों की बारिश/ गाती -मुस्काती आएँगी चिदियाँ मचयेंगी शोर-खोलो, ज़ल्दी खोलो, खिड़कियाँ / हटाओ भारी- भारी परदे/हम आई हैं, घुंघरुओं सी बजती, नीम सी सरसराती/ महसूस करती हूँ/ अपने ह्रदय के भीतर/ बहुत गहरे/यादों के झोंके मुझे/पहुंचा देते हैं/यादों की पोतालियों के पास/नवजात चूजों से गुलाबी तलवे/नन्हें हाथों से खुजाती अपना माथा/दूध पीना छोड़, किलकारी भर भर, बतियाती, मुंह से फेंकती दूध की फुहार/नन्ही छडी से थाप देती, ढोल बजाती तुम/भर देह मिट्टी / आंखों में काजल की मोटी धार/मन में उठाती आशंका- नज़र ना लग जाए/सबसे ज्यादा माँ की ही/घुघुआ मन्ना पर ही सो जाती गहरी नींद/बीच माथे पर/दो चुटिया- 'खग्लोश'/ मेरी गुदगुदी से खिलखिलाती, रन झुन बजती तुम/यूँ ही किलकती रहो/तुम- आज, कल, सदा....!