बेटी को मोटरसाइकल चाहिए
चौंक पूरे गए थे. जगह-जगह बंदनवार बंधे थे. बेटी का जन्मदिन था. ज़्यादा तफसील में जाने की जरूरत मैं नहीं समझता. बस इतना ही कि उद्दी को ग्रामीण क्षेत्र में हिन्दी माध्यम से भी पढ़ते हुए आठवीं कक्षा में ९० प्रतिशत अंक मिले हैं. यह सारे सर्वेक्षणों से कहीं अधिक है.... और मध्य प्रदेश में आठवीं अब बोर्ड नहीं रहा इसलिए इसे उदारता न समझा जाए. वह पांचवीं में ९५ प्रतिशत अंकों से पास हुई थी जो कि बोर्ड था.
माफ़ कीजियेगा, बेटी की बात है इसलिए गर्व हुआ।
आते-आते बेटी से मैंने पूछा कि तुम्हें क्या चाहिए? बेटी ने कहा कि पिछली बार उसे जो साइकल दिलाई थी वह नाकाफी है, अब उसे मोटरसाइकल चाहिए। बाप तो कभी बैठा नहीं, अब मैं उसे मोटरसाइकल दिलाने के जुगाड़ में भिड़ा हुआ हूँ.
गांव में श्रावणी, पहली बार पमरिया का नाच
मैं कुछ गीतों की खोज में बगल के आंगन में गया था। होलिकांक के पुराने रजिस्टर पर दर्ज गीतों में से कुछ मेरी पसंद के मिल जाते, तो बचपन की कहानी कहना ज़्यादा आसान हो जाता। एक गीत तो ख़ैर गांव में सबको याद है - बगल में बाकरगंज बजार, चुनरिया लागे बूटेदार। इसे मंत्रीजी ने लिखा था, जिनका असल नाम था इंद्रनारायण। इनके बेटे कृष्ण कुमार कश्यप ने मिथिला पेंटिंग को दलितों के बीच लोकप्रिय बनाया। ख़ैर, रजिस्टर तो मिला नहीं, लेकिन उस आंगन की बहनों ने मुझे बिठा लिया।
मेरी बड़ी बहन की दोस्त गोरकी (इसी नाम से हम बचपन से उसे जानते हैं... बहुत गोरी होने की वजह से ही पड़ा होगा...) ने कहा, 'दोपहर तुम्हारे यहां पमरिया नाच हुआ क्या?'
मैंने कहा, 'हां।'
'पर किसके लिए?'
'मेरी बेटी के लिए'
'पर इस गांव में तो कभी बेटियों के पैदा होने पर पमरिया नचाया नहीं गया!'
गोरकी दीदी सही कह रही थी, लेकिन मुझे पहले मालूम नहीं था। दोपहर जब पमरिया हमारे आंगन आया, तो बाबूजी के तेवर कड़े हो गये। उन्होंने कहा कि खानदान में कभी बेटी के लिए पमरिया नहीं नाचा, इसलिए आपलोग बैरंग लौट जाइए। लेकिन मधुबनी के रांटी ज़िले से चल कर आया पमरिया इस तरह जाने को तैयार नहीं हुआ। कहा, जो इच्छा हो, वो दे दीजिए, लेकिन इस तरह मत लौटाइए। लेकिन बाबूजी पांच रुपये देने को तैयार नहीं हुए।
मैं भीतर के आख़िरी कमरे में श्रावणी को गोद में लिये था, जब ये बाबूजी के साथ पमरिया संवाद मेरे कानों तक पहुंचा। छोटे चाचा भी मेरे पास ही थे। मुक्ता भी थी। हम सब बुलबुल की शादी में गांव गये थे। हम तीनों ने कहा कि बेटी के लिए पमरिया नाच अब तक नहीं हुआ, उससे क्या। जब वो आया है, तो नाचेगा।
पमरिया जम कर नाचा। हमारी भाभियां नाचीं। चाचियां नाचीं। बुआ-फूफा-भाई-गोतिया सब नाचे। पुराने सन के गानों से लेकर मॉडर्न रीमिक्स तक गाया गया। आख़िर में बाबूजी ने भी फ़रमाईश की और मोती पमरिया ने उन्हें उनकी पसंद का गाना सुनाया।
मुझे तो इस बात की खुशी थी कि गांव के इतिहास में पहली बार बेटी के पैदा होने पर पमरिया नाचा। तीन महीने की श्रावणी पमरिया की गोद में थी और मुझे अपने आप पर गर्व हो रहा था।
इस बच्ची को दुआएं दीजिए
बच्ची के रोने की आवाज़ ने प्रार्थना को बीच में ही रोक दिया। सिस्टर एलिस ने बाहर आकर देखा, पालने में कोई एक बच्ची छोड़ गया था। शनिवार की शाम के अंधरे में इस बच्ची को मां की गोद और ममता से बेदख़ली मिली। सिस्टर ने बच्ची को गोद में उठाया और गले से लगा लिया। प्रार्थना पूरी हो चुकी थी। इस बच्ची को दुआएं दीजिए कि उसकी बेदख़ली जल्दी से जल्दी खत्म हो। वो अपने हिस्से की लोरियां और गोद पा सके। उसके लिए भी कोई गा सके- मेरे घर आयी एक नन्हीं परी!शायदा दैनिक भास्कर के चंडीगढ़ संस्करण में न्यूज़ एडिटर हैं। बेटियों का ब्लॉग के लिए मीडिया अवॉर्ड लेने जब मैं चंडीगढ़ गया था, तो उनसे मुलाक़ात हुई। तब रजनीगंधा के साथ उनके रिश्ते और बात करने के उनके अंदाज़ ने मुझे बहुत आकर्षित किया था। एक अधूरा बना हुआ ब्लॉग भी उन्होंने मुझे दिखाया - और जब उसकी पहली पोस्ट लोगों ने देखी - तो ये भी देखा कि अख़बार में ख़बरों की बेहिसाब भीड़ और आमफ़हम शब्दों के बीच उनके पास संवेदना और भाषा की मुलायमियत कितनी गहराई से मौजूद है। आज उन्होंने दो चीजें हमें भेजीं। मोहल्ले में भाषा की बहस के बीच अपनी स्वीकारोक्ति, और यह ख़बर ख़ास बेटियों के ब्लॉग के लिए।
(नोट : चंडीगढ़ में सेक्टर 23 मदर टेरेसा होम के मेनगेट पर एक पालना रखा है। अक्सर देर शाम या रात के अंधेरे में वहां लोग ऐसे बच्चों को छोड़ जाते हैं जो किसी न किसी तरह उनके लिए अनवांटेड होते हैं। यहां इन बच्चों को एडॉप्ट किया जाता है।)
मुझे लोहार के घर ब्याहना!
नन्हीं-सी कली मेरी लाड़ली
कई दिनों तक सोचता रहा कि क्या लिखूं बेटियों के ब्लॉग में। कहीं और तो लबार-पछार लिखा जा सकता है लेकिन बेटियों के ब्लॉग में? न रे न!
रहीमदास का एक दोहा है-
'रहिमन अंसुआ नयन ढरि, जिय दुःख प्रकट करेय,
जाहि निकारो गेह ते कस न भेद कहि देय'।
'बेटियों के ब्लॉग' ने आँख से आंसुओं को कई बार निकलवाया है।
बहुत हिचकिचाहट के बाद यह पोस्ट इसलिए है कि ब्लॉग का सदस्य बनने के बाद अपनी तरफ से लंबे समय तक इसे सूना क्यों रखूँ।
कल दोपहर फोन पर बेटी उदिता से मेरी लम्बी बात हुई। मैं बेटी से फोन करते हुए भी डरता हूँ। डरता बेटी से नहीं, इस बात से हूँ कि कहीं उसके मामा लोग उसके ख़िलाफ़ न हो जायें। वैसे वे लोग उससे मोहब्बत करते हैं और मुझसे नफ़रत. उनके मन में थोड़ी ग़लतफहमियां हैं और कुछ घमंड।
बड़ी बात ये है कि बेटी भी यह बात समझती है. इसलिए किसी की पदचाप सुनते ही वह फोन रख देती है. भले ही उसके नाना की बिल्ली ही पीछे से क्यों न उससे मोहब्बत करने आयी हो.
मैं भाई निलय उपाध्याय का ऋणी हूँ। उन्होंने मुझे यह नाम तब सुझाया था जब मेरी बेटी बमुश्किल 9 दिनों की थी. मैंने ज्ञानरंजन जी से कोई बढिया नाम सुझाने को कहा था तो उन्होंने बिल्कुल सही ही कहा था- 'विजय जल्द ही अपनी या सुमन की पसंद का नाम रख लो वरना तरह-तरह के नाम चलने लगते हैं.' उसी दौरान भाई निलय एक काव्य-पाठ के सिलसिले में मुम्बई आए थे और ज़िक्र छिड़ने पर कहने लगे कि शमशेर के एक काव्य-संग्रह का नाम है 'उदिता'. उन्होंने कहा कि वह नाम मैं रख लूँ वरना जब उनके कोई बेटी होगी तो वह रखेंगे. मैंने तुरंत वह नाम झटक लिया था.
मेरी वह कविता 'बेटी हमारी' अविनाश ने चढ़ाई थी उसे पढ़ कर घुघुती बासूती जी के रोएँ खड़े हो गए थे.
अब समाजशास्त्री पता लगाएं कि ऐसा क्यों है?
इसी २३ मई को उद्दी का जन्मदिन है। मैं तो जा ही रहा हूँ. जो लोग उसे बधाई देना चाहें; कृपया इस पते पर दें-
कुमारी उदिता चतुर्वेदी, द्वारा/ श्री रघुवंश प्रसाद मिश्रा (पूर्व हेड मास्टर), ग्राम-बरहना (डडिया टोला), वाया-कोठी, जिला-सतना (मध्य प्रदेश).
तोषी और लाहौरियों का एक -दूजे के लिए बढ़ता मोह
यह सब ऐसे देश में हो रहा है। जी हाँ, हमें खुशी और गर्व इस बात का है कि तोषी कम से कम एक इतिहास आर्च रही है, अपने काम के साथ अपने रिश्ते कायम कराने का, एक प्यार, मुहाबत भरा ज़ज्बा बनाने का। इतिहास में बेशक उसका नाम दर्ज न होगा, पर उसे और हमें भी इस बात का सुकून मिलेगा कि हमने मुहब्बत के चाँद बीज बोये हैं। इन बीज से इंशा अल्लाह अमन और भाईचारे के फूल खिलें और सारा चमन इनकी खुसब्हू से महक उठे। आमीन।
कोशी को पसंद आई बी मूवी
ब्लॉग बेटियों का, ख़बरें बेटियों की
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छादी नहीं शादी
दो-तीन रोज़ पहले अशोकनगर गया था. बात हुई थी गुडिया से. उसके साथ बाज़ार जाना था. वहां आजकल एक साथ कई काम हो रहे हैं जैसे कि अन्य शादी-ब्याह वाले घरों में. चुने-पोचारे से लेकर दीवार की पाइटिंग-प्लास्टर तक, काम जारी है. कुछ चीज़ें बिल्कुल नयी लगायी/सजायी जा रही हैं. मेहमानों को जो आना है! गुडिया तैयार थी. हम निकलने ही वाले थे कि नज़र बिस्तर पर पड़े गुलाबी लिफ़ाफ़े पर पड़ी. गुडि़या ने बताया 'गीता जीजी की शादी का कार्ड है, कल ही शाम को आया है.' खोल कर देखा. पहली पंक्ति के बाद ज्यों-ज्यों नीचे बढती गयी, मन कसैला होता गया. अंत तो करैले के रस समान ही लगा.
'मेरी मौछी की छादी में जुलुल-जुलुल आना'
ये गुजारीश किलकारी की तरफ़ से थी.
चलते हुए चन्द्रा से फ़ोन पर तय हो गया था विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पर मिलना. कमलानगर से खरीदारी निबटा कर हम तिमारपुर आ गए. मैं थोड़ी देर में किलकारी को क्रेश से ले आया. आते वक्त रास्ते में उससे बातचीत होती रही. उसे भी मालूम है कि उसके गीता मौसी की शादी है. मैंने जब दोहरा-तिहरा कर कहा छादी है न आपकी मौसी की तो उसने कहा, 'छादी नहीं शादी'. हां, जरूर स्पष्ट नहीं बोल पा रही थी वो. पर तय है वो जो भी बोल रही थी वो जुलुल या जुलूल नहीं था.
अबोध बच्चों की तरफ़ से ऐसे संदेश हमेशा से अटपटा लगता रहा है. आपको नहीं लगता कि नादानियों की शोकेसिंग करने चला ये समाज दरअसल किसी और दिशा में निकल पड़ा है?
बहरहाल, किलकारी इस शादी को लेकर बहुत ख़ुश है और बेताब भी. जितनी बार उसके ननिहाल से फ़ोन आता है और वो तैयारियों के बारे में सुनती है, उसकी बेताबी उतने गुना बढ जाती है. पांच-छह दिन पहले कोर्ट से आते ही चन्द्रा ने बताया कि गीता और मेरी सासु मां के साथ वो भी गयी थी चांदनी चौक गीता के लिए साडियों की ख़रीदारी करने. सुनते ही किलकारी ने कहा, 'मेरे को भी ड्रेस दिला दो. अच्छा वाला दिलाना.' अदा के साथ गर्दन झटकते हुए और मुंह से एक अजीब से चूं की आवाज़ निकालते हुए कहती है, 'कारी तो डांस करेगी गीता मौसी की शादी में बापु के साथ, मम्मी आप करोगे न?'
एक गुज़ारिश, नारों के लिए नहीं है ये ब्लॉग
ये ब्लॉग हम कुछ साथियों ने इस मक़सद से शुरू किया था कि इसमें हम अपनी बेटियों के बारे में बातें करेंगे। उनकी छोटी से छोटी कहानियां आपस में शेयर करेंगे। बेटियों से संवाद करेंगे, ख़तो-किताबत के ज़रिये। ‘बेटी बचाओ’ जैसे नारों से अलग संवेदना की ऐसी पगडंडी पर चलने की कोशिश करेंगे, जिसकी घास पर हमारी बेटियों के पांव डगर-मगर करते हों। हमारे कुछ साथियों ने अच्छा-ख़ासा उत्साह दिखाया। ख़ास कर अजय ब्रह्मात्मज, विमल वर्मा, पुनीता ने। विभा जी की सक्रियता भी सलाम करने योग्य है - लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें तोषी-कोशी के बारे में बात करनी चाहिए। आज ही जो उन्होंने लिखा है, अपने जीने का अधिकार चाहिए बेटियों को, या इससे पहले की भी कुछ पोस्ट, जिनमें अख़बारी कतरनों का हवाला देकर बेटियों के अधिकार की बातें गयी हैं, वैसी बातें एनजीओ और बहुत सारे अभियानों में कही जाती हैं। ये ब्लॉग ऐसे नारों के लिए नहीं है। ये हमारी अपनी ज़िंदगी के सुख-दुख साझा करने के लिए है - जिसका सिरा हमारी अपनी बेटियों से जुड़ता है। बाक़ी बातों के लिए सबका अपना निजी ब्लॉग तो है ही।
अपने जीने का अधिकार चाहिए बेटियों को
बेटियाँ क्या महज़ घर की इज्ज़त, आबरू, घर के नाम पर मर मिटने वाली एक जीव और एक दास्ताँ भर है, या वह इंसान भी है? उसे अपने जीने का, अपने जीवन पर सोचने का, अपना भला-बुरा जानने-पहचानने का हक है या नहीं? एक और जब दुनिया इतनी आगे बढ़ रही हाय, लड़कियां मिअथाकीय समय से लेकात्र अभी तक पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं, ऐसे में इस तरह की बातें हमारे मन को तोड़ती व झकझोरती हैं। हम समझ नहीं paate कि हम भारती मिश्र, द्रौपदी, सीता, कैकेयी, सुनीता विलियम, कल्पना चावला आदि को देखीं या वासना, अहम् और झूठी मान-मर्यादा का शिकार होती इन मासूमोंन को देखें। मैं इन उत्कर्ष बालाओं को देखते हुए भी इन मासूमों से नज़रें नहीं फेर सकती, यह कह कर कि यह तो होता ही रहता। है। कहीं ना कहीं हमें इस और बढ़ना ही होगा, इस मानसिकता के ल्हिलाफ आवाज़ उठानी ही होगी। बेटियों को अपने जीने का अधिकार चाहिए। यह उसकी मांग नहीं, उसका हक है। सससाद में ३०% का आरक्षण मानागेवाले इनदें। आम जीवन में आम बेटियों से उसका बचपन, उसकी खुशियाँ न छिनी जाएं। इस आम धरती पर की आम बेटियाँ इससे अधिक और कुछ नहीं चाहतीं।
बताएं, क्या करें बेटियाँ
इस ब्लाग को अवार्ड मिल गया। निमित्त मेरा एक लेख बना। बेटियों के गर्वीले माँ-बाप अपनी बेटियों के बारे में लिख रहे हैं। में भी उनमें से एक हू। ख़ुद भी बेटी हू। कभी कभी तो बेटी ही बने रहने का ऐसा जी चाहता है कि अपनी ही बेटी से माँ जैसे बर्ताव की उम्मीद लगा बैठती हूँ। मगर बेटी होने के कई अवसाद ग्रस्त और खून खुअला देनेवाले वाकयात कभी कभी यह सोचने पर मज़बूर कर देते हैं कि हम बेटी क्यों हुए?
आज ही एक अखबार में एक ख़बर है कि ४ साल की बच्ची को उस व्यक्ति से मुक्त कराया गया जो यह विश्वास रखता है कि कम उम्र की अक्षत योनी कन्या के साथ सम्भोग करके वे कई बीमारियों से मुक्ति पा सकते हैं। यह केवल इस भ्रम या रुधि ही नहीं, वरन नई व अनूठी खोज के लोलुप के द्वारा भी एअसी घटनाएँ सुनाने को मिलाती हैं। कई तथ्यों से, सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है दुध्मुम्ही बच्चियाम अपने ही करीबी और रिश्तेदारों की लोलुपता का शिकार होती रही हैं।
बच्चियां बिचारी क्या करें? वे जन्मना छोर देन, या जनम कर किसी कोने में मुंह छुपाये रहें। इन नन्ही बच्चियों का व्यवसाय करनेवालों के लिए यह एक दीर्घ कालिक निवेश हाय। कितना सही शब्द है न बाज़ार का यह। एक उपभोग की वस्तु में तब्दील होती बेटियाँ, अपने तन से, मन से नकार दी जाती हुई।
मेरे मन में यह सवाल आता है कि आख़िर कौन हैं ये लोग? क्या वे आकाश से टपक आए हैं या उन्हें भी किसी बेटी ने ही अपनी कोख मी धारा होगा, अपने कलेजे का खून दूध मी बदल कर पिलाया होगा। उनकी भी तो कोई बहन होगी, जो अपने भाई पर इस चरम आस्था के साथ कि संकट में वह उसकी रक्षा करेगा, उसकी कलाई पर राखी बांधती होगी। उसकी भी तो पत्नी होगी, जो एक पूरे समर्पण और विश्वास के साथ अपनी पूरी दुनिया छोड़ कर आई होगी। उसकी भी तो बेटी होगी, जो उसके ही अंश से जन्मी है। ऐसा भीषण कृत्य करते हुए क्या उनके मन में इन सबकी कोई छवि नहीं उभरती?
जेल में अपने काम के दौरान कई बार ये सवाल उठे। वहां के अधिकारियों से भी बातें कीं। वे सब भी इस बात पर सहमत थे किएक बार तो खून के अपराध को गलती का अंजाम माना जा सकता है, मगर रेप को नहीं। लोक पर काम करते हुए मिथिला कि एक लोक कथा इस आशय की मिल गई। उसी समय दिल्ली में एक घटना हुई थी, जिसमें पिटा व भाई द्वारा एक लड़की लगतार १५ दिनों तक पिसती रही। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने एक नाटक लिखा- 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' मोहन राकेश सम्मान इसे मिला है। मगर यह मेरे लिए नरक कि कल्पना से भी ज़्यादः भयावह है। एक बारकिसी से कहा था किबच्चे, ख़ास कर बेटियाँ कभी खोये ना। खोने से अच्छा है कि वे मर जाएं। मित्र को यह बात बुरी लगी थी। आप सबको भी बुरी लग सकती है, मगर ज़रा सोचिये कि हम उस बच्ची को कैसा जीवन दे रहे हैं, जो किसी और की हवस कया शिकार बने और उस पर भी हमारा समाज ख़ुद को सभ्य कहता रहे। यह कैसी दुनिया है। जब कभी इस तरह की ख़बर पर ध्यान जाता है, मन अकुलाने लगता है। आप सब बेटियों के बाप हैं। ऐसों को केवल समाज का कोढ़ या जंगली जानवर, मानवता कया हत्यारा आदि कह देने से काम नही चलेगा। सोचिये कि क्या किया जाए ऐसा, जहाँ हमारी बेटियाँ सुरक्षित रहें। उनके मन पर इस तरह की कोई छाप ना परे, जो उनके पूरे जीवन कू सोख कर रख दे।
आकार
बेटियों की ललाई
बेटियों कि आस्था,
बेटियों पर विश्वास
बनता है एक सहज पुल
अचानक जब बेटी अपनी दहलीज लाँघ पार कर अति है सात दरियाओं का अनंत उद्गार।
बेटियाँ जब होती हैं, मन मलिन कर लेते हैं
पर भर आती हैं आँखे,
जब पार कर लेती हैं वे सूरज की ऊम्चाइयां
बेटी को अब मन नही करता
बोलूँ उसे दुर्गा, सीता, सरस्वती
छोर चुकी है वह अब इन प्रतिमानों को बहुत पीछे
अपने यहाँ एक खली ग्लास है
जिसमे से छलकती है उसकी सूरत
कुछ पहचानी सी
कुछ कुछ अनजानी सी
मन कबतक धरे धीर
बेटियों का आगमन होता रहे जलस्दी ज़ल्दी
भरे वह अपनी हँसी से मान का अंचल,
पिटा का दामन
बहन की मुस्कान
भाई की बने जान
बेतिया अब सगार पुत्र भी नही
वे हैं अनंत आकाश
हर सीमा के आर-पार।