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कोशी और दाल - भात

दफ्तर के काम से मुझे अक्सर बाहर दौरे पर जाना पङता है। कल भी गोवा गई। सुबह गई और शाम को लौट आई। गोवा की फ्लाईट एक घंटे की है और एयरपोर्ट से घर पहुँचाना भी एक घटा ले लेता है ट्रैफिक की वज़ह से। आजकल मेरी बहन और बहनोई आए हुए हैं। वे भी पुणे गए थे और लौट रहे थे, शाम में। हम दोनों ही अपने-अपने गंतव्य से लगभग एक ही समय घर पहुंचनेवाले थे। हम दोनों ही थके हुए। दीदी बड़ी है, इसलिए माँ सरीखा ममतापन उसमें है और चूंकि घर मेरा है (यह अलग मुद्दा है कि औरतों का भी घर होता है क्या?), इसलिए पूरे रास्ते मैं यह सोचती आ रही थी कि घर पहुंचाते ही क्या- क्या बना दूँगी खाने के लिए।
रात के सवा नौ बजे के करीब मैं घर पहुँची और यह देखकर बहुत सुखद लगा कि कोशी ने अपने मन सेसभी के लिए दो कुकर में अलग-अलग दाल-चावल बना कर रख दिया है। अब मुझे केवल सब्जी और चपाती बनानी थी। आजकल वह कॉलेज जाने लागी है। कॉलेज जाने से उसका आत्म विश्वास काफी बढ़ा है। वह अपने कॉलेज के सालाना समारोह की वर्किंग कमिटी में आ गई है। अपना काम बहुत सलीके और लगन, उत्साह से कर रही है। दूसरे, अपनी दीदी तोषी में उसकी जान बसती है। आप उसके ख़िलाफ़ कुछ बोल दें, तो शायद वह आपकी जान लेने से भी न हिचके।
उसमं आ रही यह तब्दीली उसके अपने विकास के लिए जरूरी तो है ही, हमें यह सुकून देती कि वह जो भी करेगी, अच्छा करेगी और जिम्मेदारी के साथ करेगी। कल ही उसने यह भी कहा कि उसकी परीक्षा शुरू होनेवाली है और अब उसने पढ़ना शुरू कर दिया है। बात दाल -भात से निकलकर यहाँ तक आ गई । यह सब उसी की महिमा है।