अनंत तस्‍वीरें दृश्‍यावलियां ख़बर ब्‍लॉग्‍स

चलोगे कारी के उच्छुल में

एक साल हो गए किलकारी को क्रेश जाते हुए. पिछली सर्दी में हमने उसे वहां डाल दिया था. मजबूरीवश. चंद्रा क़रीब 14 महीने से घर पर बैठी थी. कहना शुरू कर दिया था कि अब फिर ज़ीरो से शुरू करना पड़ेगा काम. हालांकि टुकड़ों-टुकड़ों मैं किलकारी को समय दे दिया करता था लेकिन हमेशा उसके साथ रहना मुश्किल था. दो-चार बार समय निकाल कर चन्द्रा तीस हज़ारी गयी. पता किया क्रेश के बारे में. नहीं था. अपनी सहेलियों को इकट्ठा किया और डीबीए के दफ़्तर में जाकर क्रेश की मांग की. तीन-चार महीने में क्रेश चालू हो गया वहां.

किलकारी ने 'कचहरी' जाना शुरू कर दिया अपनी मां के साथ. दो तीन दिन गयी. जुकाम हो गया उसे. हमने कहा, 'अटेंडेंट ध्यान नहीं रखती है ठीक से, जब तक दूसरी अटेंडेंट नहीं आती है किलकारी घर पर ही रहेगी.' इस बीच अपने घर के आसपास तिमारपुर में हमने क्रेश के बारे में पता किया. अचानक रणवीरजी ने बताया कि क्रेश तो अपनी कॉलोनी में ही है. हम झट से देखने चले गए. ठीक-ठाक लगा. अगले रोज़ से किलकारी वहां जाने लगी. हम तीनों सुबह साढे नौ बजे साथ निकलते घर से. पहले किलकारी को छोड़ते उसके बाद हम अपने-अपने काम पर चले जाते. सिलसिला अब तक जारी है.

कभी किलकारी ने क्रेश जाने से मना नहीं किया. अब तो तीन साल की होने वाली है. सुबह उठते ही कहती है, 'मम्मी कारी का बैग तैयार कर दो. लंच रख देना. कारी उच्छुल (क्रेश को स्कूल मानते हुए वो यही कहती है) में खाती है. अन्नी भी खाता है, क्वीन भी खाती है. नैना नहीं खाती है खाना. आंटी उसको डांटती है.' रोज़ कुछ न कुछ नयी बात बताती है आकर. हमको उसके हां में हां मिलाना पड़ता है. अभी दो-तीन दिन पहले रात को अचानक उसने कहा, 'पापा, तुम भी चलोगे मेरे साथ कारी के उच्छुल में. तुमको हम पढाएंगे वहां'. पूछा क्या पढाओगे? तो झट से बोल पड़ी़, 'नाना गए दिल्ली, वहां से लाए दो बिल्ली, एक बिल्ली कानी, सब बच्चों की नानी'. और फिर बोली, 'अब तुम बोलो न. बोलो न पापा.' मैं बोलने ही वाला था कि उसने फिर कहा, 'नहीं बोलोगे पापा तो आंटी से बोल देंगे, तुमको डांट देगी आंटी.'

क्रेश मजबूरी में भेजा था किलकारी को. पर वो तो शुरू से ही इंज्वॉय कर रही है. हमें भी तसल्ली होती है कि समय की जिस तरह की ग़रीबी में हम जी रहे हैं, क्रेश न होता तो किलकारी रोज़ नयी-नयी बात कहां से सीख पाती!

श्रावणी को सुर कहें या सुरु

श्रावणी का अभी घर का कोई नाम नहीं रखा है। “बउआ-बउआ” से काम चल रहा है। मुक्‍ता अड़ी है कि “सुर” रखेंगे। कभी-कभी पुकारती भी है। लेकिन इसमें लिंग की दिक्‍कत है। सुर पुल्लिंग है। ग़ुलाम अली जब एक कंसर्ट में दिल में एक लहर सी उठी है अभी गा रहे थे, तो थोड़ा गड़बड़ा गये। उन्‍होंने गाने के बीच में बोला, सारा सुर ग़लत हो गया। बाबूजी भी मुक्‍ता को सुधारते रहते रहते हैं। मुक्‍ता उछल कर श्रावणी की कोई बात बताने बाबूजी के पास जाती है। बाबूजी, बाबूजी... कंबल तो पांव से फेंक ही देती है, मोटा-सा रजाई भी फेंक देती है। बाबूजी मंद मंद मुस्‍कराते हुए बोलते हैं, मोटा रजाई नहीं फेंकती होगी, मोटी रजाई फेंकती होगी। मैं भी मुक्‍ता से कहता हूं, हिंदी का चक्‍कर छोड़ो, बेटी से भोजपुरी में बतियाया करो। वो कहती है- बतियाएंगे। लेकिन उसकी ऐसी हिंदी घर में अनवरत चलती रहती है। मैं बेटी को बहलाने के लिए फिल्‍मी गाने से काम चला लेता हूं। रोती है तो सहगल चुप करा देते हैं - सो जा राजकुमारी सो जा।



बाकी मेरी मैथिली जिंदाबाद। स्‍त्रीलिंग-पुल्लिंग का कोई लफड़ा नहीं। गोद में लेकर “छुनुआ बेटी गइ, सोनुआ बेटी गइ” बोलते रहते हैं।

अभी जाड़ा है। श्रावणी कपड़ों से पैक रहती है। गर्मी होती तो अब तक पलटी मार देती। अभी आंधी की तरह पांव फेंक कर काम चलाती है। अंगूठा चूसने की कोशिश कर रही है। मुक्‍ता रोमांचित होकर उसका अंगूठा मुंह के भीतर डालने लगती है। पर बाबूजी गुरु गंभीर होकर बोलते हैं - जीवन को उसके सहज प्रवाह में रहने दो। अपनी तरफ से उसे मोड़ने की कोशिश मत करो।

मैंने भी मेंबरशिप ले ली इस क्लब की

बेटियों का ब्लॉग पहली बार कल देखा था। लगा, भइया इस क्लब की मेंबरशिप तो फटाफट ले लेनी चाहिए। देखा नेट डाउन हो गया। आज भाई अविनाश की मदद से मैंने भी मेंबरशीप ले ली। बड़ा अच्छा लग रहा है।

कोशी और तोषी के ब्लॉग्स

कोशी और तोषी दोनों के अपने ब्लॉग्स हैं। दोनों ने कविताएं लिखी हैं।

एक दिन कोशी स्कूल से आयी तो बहुत खुश थी। अमूमन मुम्बई में स्कूलों से घर लौटे बच्चे ट्रैफिक और भूख से इतने निढाल होते हैं कि चिढे रहते हैं। उस दोपहर उसने बताया कि आज क्लास में उसने दोस्तों के साथ मिल कर एक कविता लिखी है। अब सभी का इरादा है हमलोग अपना एक ब्लॉग शुरू करें। इस ब्लॉग में हम सभी मिल कर या अलग-अलग कविताएं लिखेंगे। उसने इसे जलपरियों की कविताएं शीर्षक दिया और ब्लॉग का नाम http://paripoems.blogspot.com/ रखा। अनोखी कविताएं इस अर्थ में हैं कि मिल कर लिखी गयी हैं। उन्होंने स्वतंत्र रूप से भी अपनी कविताएं डाली हैं। किसी ने अपना नाम नहीं लिखा है। उनके नंबर हैं। जलपरी- 1, 2, 3...

तोषी बड़ी है और जे जे स्कूल ऑफ़ आर्टस से स्नातक है और आजकल लाहौर में है। वह 270 दिनों के लिए लाहौर गयी है। उसका इरादा था कि वह नियमित रूप से ब्लॉग लिखेगी, लेकिन चंद पोस्ट के बाद वह अपने काम और लाहौर में रम गयी। बुरा नहीं है, क्योंकि वह पड़ोसी देश को करीब से निहार रही है। मुझे पूरा यक़ीन है कि वहां से लौटने के बाद वह अधिक समृद्ध हो जाएगी। सोच और काम के स्‍तर पर। उसने भी कुछ कविताएं लिखी हैं। वह अंग्रेजी में लिखती है। अगर आप उसका ब्लॉग पढें तो पाएंगे कि रंगों का इतना सुन्दर इस्तेमाल कविताओं में किया गया है। रंगों का व्यक्तित्व दिखेगा। उसके ब्लॉग का पता है- http://vidhainpakistan.blogspot.com/

मुझे बेटियों की तारीफ करने में बहुत आनंद आता है और उनकी शिक़ायत करना भी बुरा नहीं लगता।

बाबा तुम बांग्ला बोलो तो

सहारनपुर से लौटा तो तिन्नी ने तुंरत सब कुछ बताना शुरू कर दिया। कौन कौन आया था और किसने क्या कहा। अचानक बोल उठी, बाबा तुमी जानो बाड़ी ते चॉप बनानो होए छे। बस मुझे जवाब देना था। बोला कि किसने बनाया। तिन्नी गुस्सा गयी। बोली कि बाबा तुम मेरे साथ बांग्ला बोलो तो। मैंने कहा मुश्किल है। तिन्नी ने कहा बेश आशान है। चलो मैं सीखाती हूं। जब मैं बोलूंगी कि बाड़ी ते चॉप बनानो होए छे। तो तुम बोलोगे- के बानिये छे। फिर मैं बोलूंगी- नानी बानिये छे। चार साल की बेटी ने एक मिनट में रैपिडेक्स की तरह बांग्ला के दो वाक्य सिखा दिये। तिन्नी कहने लगी बाबा तुमी आमार शंगे बांग्ला बोलो। भाल लागबे।

बेटी की विदा

राजेश जोशी की ये अंत्‍यंत ही मार्मिक कविता विजय शंकर जी ने ख़ास तौर पर बेटियों के ब्‍लॉग के लिए भेजी है। हम विजय जी की भावना की क़द्र करते हुए इसे यहां प्रकाशित कर रहे हैं। लेकिन हमारी ये ख्‍़वाहिश है कि हमारी बेटियां विदा होकर कभी न जाए। हमारा घर उसके लिए पराया कैसे हो सकता है। वे अपनी दुनिया वहीं आबाद करे, जहां वे पैदा हुईं। कहीं और करना चाहे, तो ये उसकी मर्जी होगी - परंपरा से चली आ रही विदा बेला का कोई आधुनिक पाठ रचने में ये ब्‍लॉग मदद करता है, तो यही हमारी क़ामयाबी होगी। बहरहाल, शुक्रिया विजय शंकर जी। बहुत बहुत शुक्रिया।
वे तीनों अलग-अलग शहरों से चौथे दोस्त की बेटी के ब्याह में आये थे
और कई दिनों बाद इस तरह इकट्ठे हुए थे

इस समय जब दोपहर लगभग ढल रही थी
तीनों घर के सामने एक पेड़ की छांव में बैठे हुए थे
और चौथे की बेटी की विदाई हो रही थी

अभी कुछ देर पहले तक वे हंस रहे थे और आपस में बतिया रहे थे
अब चौथे की बेटी लगभग घर के दरवाजे पर आ पहुंची थी
और रस्म के अनुसार कोई मखाने और पैसे फेंक रहा था
बेटी कभी मां और कभी भाई के गले लग कर रो रही रही थी

चौथा उसे अपनी एक बांह के घेरे में लिये था
वह अपने को संयत रखने की भरसक कोशिश कर रहा था
पर उसकी आंख की कोरें बार-बार भींग जाती थीं
वह रुमाल को चश्मे के कोनों के पास लाकर चुपके से उन्हें पोंछ लेता था
वह घर के सामने बैठे तीनों दोस्तों की ओर देखने से बच रहा था

तीनों दोस्त एकायक चुप से हो गए थे
जैसे अचानक उनकी सारी बातें ख़त्म हो गयी हों

इनमें से एक की बेटी का ब्याह दस दिन बाद था
और दूसरे की बेटी का ग्यारह दिन बाद

थोड़ी देर पहले दोनों इसी बात पर अफसोस कर रहे थे
कि वे शामिल नहीं हो पायेंगे एक दूसरे की बेटी के ब्याह में
तीसरे की बेटी अभी कॉलेज में पढ़ रही थी

चौथे की बेटी लगभग घर की देहरी पर आ चुकी थी

तीनों दोस्त बीच-बीच में चौथे की तरफ देखते थे
चौथा तीनों से अपनी आँखें चुरा रहा था

तीनों में जो सबसे ज्यादा अनुभवी थी, कह रहा था
कि अभी तो चौथा अपने को बहुत संभाले हुए है
लेकिन विदा के बाद इसे संभालना होगा

तीनों दोस्त चुप थे
और एक दूसरे से अपना रोना छिपा रहे थे
तीनों एक दूसरे से नज़र चुराते हुए किसी न किसी बहाने
चुपचाप पोंछ रहे थे बार-बार भींग जाती
आंखों की कोरों को

चौथे की बेटी की विदाई में देख रहे थे तीनों
अपनी-अपनी बेटी को विदा होते

तुमने देखा है कभी
बेटी के जाने के बाद कोई घर?

जैसे बिना चिड़ियों की सुबह हो!
जैसे बिना तारों का आकाश!

बेटियां इतनी यकसां होती हैं
कि एक की बेटी में दिखती है दूसरे को अपनी बेटी की शक्ल

चौथे की बेटी जब बैठ कर चली गयी कार में
तो लगा जैसे ब्रह्मांड में कोई आवाज़ नहीं बची

एकाएक अपनी उम्र लगी हम सबको
अपनी उम्र से कुछ ज़्यादा

कोशी के लिए झींगा (Prawn) बनाया

आज रविवार का दिन है। सुबह पहले तो विभा ने बाबूजी के लिए बंगाली शैली का नाश्ता बनाया। लुची,चने कि हलकी मीठी दाल और बैंगन भाजा। मिष्टी दही बाज़ार से आ गया था, सुबह के दिव्या बंगाली नाश्‍ते के साथ बंगाली सफ़ेद रसगुल्ला भी था, जो कोशी ने मुझे खाने नही दिया। मधुमेह से ग्रस्त पिता के प्रति बेटी सचेत हो जाये, तो रसगुल्ला नहीं मिलता।

विचार हुआ कि दोपहर में झींगा खाया जाए। मैंने कोशी से पूछा कौन से स्टाइल का खाना है। उसने कहा कि नारियल डाल के साउथ या कोंकण शैली का। मुझे तो मजा ही आ गया। खाना बना कर खिलाने का आनंद कविता सुनाने के टक्कर का होता है। अगर स्वादिष्ट व्यंजन बन जाए तो सालों उसका स्वाद याद रहता है किसी प्यारी कविता की तरह। बहरहाल, मैंने एक आदत तो डाल ली है और मेरी बेटियों ने उसे अपना लिया है कि खाना कहीं का बेस्वाद नही होता। अगर कहीं घूमने जाओ तो वहीं के व्यंजन खाओ। हालांकि कपड़ों की तरह भोजन में भी एकरूपता लाने की साजिश चल रही है। इससे लड़ने का एक ही तरीका है कि गोवा में जाकर तन्दूरी रोटी और चिकेन न खाएं। खैर,आज कोशी और मैंने मिल कर केरल के कैथोलिक परिवारों में प्रचलित झींगे का व्यंजन तैयार किया और डट कर खाया।

क्या आप भी आजमाना चाहेंगें? बेटियों के लिए मैंने कई व्यंजन तैयार किये हैं। बनाने में आसान और खाने में स्वादिष्ट। यह तो बात हुई कोशी की।

तोषी की ग्रुप प्रदर्शनी कल लाहौर में शुरू हो रही है। वहां भारत के दो छात्र हैं। सार्क के 8 देशों के 22 छात्र इसमें हिस्सा ले रहे हैं। उसने हाल में ही बताया कि वह आजकल पढ़ भी रही है। मेरे लिए यह ख़ुशी और गर्व की बात है। आप भी उसकी प्रदर्शनी का आमंत्रण पत्र देखें। यह पत्र भी उसी ने डिजाईन की है।


तोषी का फोर्मल नाम विधा सौम्या है.

मैं रवीश कुमार, मैं भी बेटियों के ब्‍लॉग का सदस्‍य हूं

यह ब्लाग बेटियों के पिताओं का ब्लाग है। आगे माताएं भी जुड़ने लगेंगी। लेकिन शुरुआत पिताओं से हो रही है। बेटियों के इस ब्‍लॉग क्लब में उन सबका स्वागत है, जिन्होंने दहेज नहीं लिया, भ्रूण हत्या में शामिल नहीं रहे और मानते रहे कि बेटियां बराबर की होती हैं। उनके लिए भी है, जो प्रायश्चित करना चाहते हैं। जो स्वीकार करना चाहते हैं कि अब वो बदल रहे हैं।

मेरी बेटी हर दिन मुझे बदल देती है। आज ही दफ्तर से लौटा तो स्वेटर का बटन बंद कर दिया। चार साल की तिन्नी ने कहा कि ठंड लग जाएगी। तुम्हारे एनडीटीवी में ठंड नहीं लगती। बाबा तुम एकदम पागल हो। बेटियों को ख्याल करना आ जाता है। बस हमलोग यानी पुरुष पिता उस ख्याल को अपने अधिकारों से नियंत्रित कर नियमित मज़दूरी में बदल देते हैं। तिन्नी हर काम करना चाहती है। अक्सर पूछती है तुम किचेन में क्यों नहीं जाते। तुम भात क्यों नहीं बनाते। मेरा किचेन में जाना न के बराबर होता है। पत्नी भी नहीं जाती। लेकिन उसे सब कुछ बनाना आता है। मुझे चाय बनानी आती है। जब काम करने के लिए कोई और नहीं था, तब बर्तन धो कर श्रमदान करता था। पोछा लगाता था। लेकिन किचन में काम करना ही पड़ता था। फिर भी खाना न बना पाने की इस एक कमज़ोरी और असमानता के अलावा हर काम में बराबर का बंटवारा होता है। नयना की इस आदत का असर तिन्नी पर भी हो गया है। नयना ने ही मुझे सिखाया कि काम दोनों बराबर करेंगे। फिर भी मेरे घर और शहर से बाहर होने के कारण उसे ही अधिक ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है। लेकिन वह बता देती है कि इसकी कीमत है। फ्री नहीं है।

नयना के कारण मैं बिहार के एक अर्धसामंती परिवेश में पला बढ़ा एक मर्द काफी बदला हूं। सोच से लेकर बोल तक में। भाषा में अनायास और स्वाभाविक रूप से आने वाले स्त्रीविरोधी शब्दों की पहचान उसी ने करायी। कहा कि देखो यह तुम्हारे भीतर का मर्द बोलता है।

बाकी का बदलाव तिन्नी ला रही है। छुट्टी के दिन तय करती है। कहती है आज बाबा खिलाएगा। बाबा घुमाएगा। बाबा होमवर्क कराएगा। मम्मी कुछ नहीं करेगी। मैं करने लगता हूं। वही सब करने लगता हूं जो तिन्नी कहती है। मैं बदलने लगता हूं। बेहतर होने लगता हूं। बेटियों के साथ दुनिया को देखिए अक्सर मन करता है इसे इस तरह बदल दें। इसके लिए खुद बदल जाएं। बेटियों का यह ब्लाग क्रांतिकारी क़दम है। मैं भी इसका सदस्य हूं।

बिटिया होती है दो तिहाई भाग हमारे घर का

मध्‍य प्रदेश के गुना शहर में बसे निरंजन श्रोत्रिय बेटियों का ब्‍लॉग देख कर बाग़ बाग़ हो गये। उन्‍होंने मेल करके बधाई दी और ये कविताएं इस ब्‍लॉग के लिए भेजीं। बिटिया सीरीज़ की ये कविताएं हमारे समय और समाज की उलझी हुई गुत्थियों के धागे समेट रही हैं।
एक

बिटिया समुद्र होती है
उसे कुछ भी दो वह लौटा देगी
उसे याद करो न करो
वह बार-बार आकर करती है सराबोर
हमारे तटों को

अनगिनत रहस्य अपने में समेटे
बिटिया होती है दो तिहाई भाग
हमारे घर का

दो

बिटिया थक कर लेटती
और घूरती घर की छत
सो जाती छत की सिल्लियों पर बनी
आकृतियों से बतियाते

बिटिया नींद में भी देखती
घर की छत
उसके स्वप्न लौट आते
टकरा कर छत से
जाग जाती चौंक कर
नहीं बदलती करवट
घूरती रहती छत लगातार

घर की छत टिकी
फ़कत बिटिया की नज़रों पर

तीन

एक लड़की विमला चौहान सोच रही
दूसरी लड़की लिली फर्नांडीज़ के बारे में
लिली चिन्तित राधा शर्मा के बारे में
राधा जानती सलमा कुरेशी का दु:ख
सलमा पहचानती मनजीत कौर की व्यथा

शहर के इस छोर पर
यदि आप हिलाएंगे एक लड़की को नींद में
शहर के दूसरे छोर पर
चौंक जाएगी एक और लड़की!

उग आती हैं बेटियाँ

बोए जाते हैं बेटे
उग आती हैं बेटियाँ

खाद-पानी बेटों में
पर लहलहाती हैं बेटियाँ

एवरेस्ट पर ठेले जाते हैं बेटे
पर चढ़ जाती हैं बेटियाँ

रुलाते हैं बेटे
और रोती हैं बेटियाँ

कई तरह से गिराते हैं बेटे
पर सम्भाल लेती हैं बेटियाँ


बेटियों पर बात करने से पहले मेरी तरफ से यह कविता पेश है। यह मशहूर कविता नन्द किशोर हटवाल की है। हालाँकि कई जगह पोस्टर के रूप में यह कविता मिलती है लेकिन उसमें कवि का नाम नदारद रहता है। नन्द किशोर हटवाल चमोली जिले में राजकीय इंटर कॉलेज में शिक्षक हैं। सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं। वे उत्तराखण्ड साहित्य कला परिषद से भी जुड़े रहे हैं।

(इस पोस्‍ट में इस्‍तेमाल की गयी तस्‍वीर सना ख़ान की है। सना, नासिरुद्दीन हैदर खान (जिन्‍हें हम कब्‍बूभाई के नाम से संबोधित करते हैं) और कहकशाँ की बेटी हैं और ये तस्‍वीर उसके पैदा होने के थोड़े दिनों बाद की है: अविनाश)

कोशी और तोषी

ये नाम मेरी बेटियों के हैं।

फ़िलहाल इतनी ही जानकारी कि बड़ी बेटी तोषी मुझे आप कह कर संबोधित करती है और छोटी हमेशा तुम कहती है.क्यों?मुझे नहीं मालूम और न मैंने जानने-समझने की कोशिश की.आप कहा जाऊं या तुम?दोनों ही बेहद प्यारी,समझदार और अपनी उम्र से ज्यादा अनुभवी हो गयी हैं।

बड़ी बेटी तोषी फ़िलहाल पाकिस्तान में है.लाहौर में रह कर वह अध्ययन कर रही है.छोटी मेरे साथ है.उसकी १०वी की परीक्षा शुरू होने वाली है।

आज इतना ही.

आइए, बेटियों के बारे में बातें करें

ये ब्‍लॉग बेटियों के लिए है। हम सब, जो सिर्फ बेटियों के बाप होना चाहते थे, हैं, ये ब्‍लॉग उनकी तरफ से बेटियों की शरारतें, बातें साझा करने के लिए है। मुश्किल ये होती है कि शुरू कहां से किया जाए। पोलैंड की कवयित्री विस्‍साव शिंबोर्स्‍का को जब नोबेल प्राइज़ दिया गया, तो उस समारोह में उनके बयान के पहले वाक्‍य में ऐसी ही मुश्किल का ज़‍िक्र था। शिंबोर्स्‍का ने कहा था, सबसे मुश्किल है पहला वाक्‍य बोलना (और इस एक वाक्‍य के साथ उनकी मुश्किल हल हो गयी थी)। लिहाज़ा हमारी मुश्किलें भी सूरज के पार जा चुकी हैं। आइए, हम सब अपनी बेटियों के बारे में बातें करें।