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एक लड़की की शादी

नासिरूद्दीन

जहन में एक बात हमेशा कौंधती है, क्‍या लड़की की जिंदगी का सारा सफर शादी पर ही खत्‍म होता है। मैं अक्‍सर सोचता हूँ कि दसवीं, बारहवीं में जो लड़कियाँ हर इम्‍तेहान में लड़कों से बाजी मारती रहती हैं, कुछ दिनों बाद ऊँची तालीम, नौकरी और जिंदगी के दूसरे क्षेत्रों में क्‍यों नहीं दिखाई देतीं? कहाँ गायब हो जाती हैं?
लड़की पैदा हुई नहीं कि शादी की चिंता। उसके लिए एफडी की फिक्र। उसके नैन-नक्‍श, दांत की बुनावट, पढ़ाई-लिखाई, काम-काज की चिंता भी शादी के लिए ही? यही नहीं शादी को लेकर जितनी कल्‍पनाएँ लड़कियों की झोली में डाल दी जाती हैं, वह उनके पूरी दिमागी बुनावट पर असर डालता है। फिर वह भी इसी में झूलती रहती हैं। पढ़ो इसलिए कि अच्‍छा वर मिले। हँसो ठीक से ताकि ससुराल में जग हँसाई न हो। चलो ऐसे कि ‘चाल चलन’ पर कोई उँगली न उठे। चेहरा-मोहरा इसलिए सँवारो ताकि देखने वाला तुरंत पसंद कर ले। यह सब भी इसलिए ताकि ‘सुंदर- सुशील- घरेलू’ के खाँचे में फिट हो सके।
क्‍या माँ-बाप कभी किसी लड़के को ताउम्र शादी की ऐसी तैयारी कराते हैं। क्‍या कभी किसी लड़के से शादी की ऐसी तैयारी की उम्‍मीद की जाती है। क्‍या किसी लड़के की जिंदगी की सारी तैयारी का गोल सिर्फ और सिर्फ शादी होता है। शायद नहीं। तो क्‍यों नहीं?
क्‍यों सिर्फ लड़कियाँ?

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तिन्नी और अख़बार

तिन्नी अपनी ड्राइंग अख़बार में छपा देखना चाहती है। उसका कहना है कि दुनिया जान जाएगी। धरती को पता हो जाएगा। कल उसने कहा कि पापा फोटो भी होना चाहिए। तिन्नी को यह नया शौक चढ़ गया है। घर के सारे बेकार पन्नों के पीछे तिन्नी ने रंग दिया है। दिन भर रंगती रहती है। अब मैं जानना चाहता हूं कि छह साल की बेटी की ड्राइंग को छापने के लिए कौन सा अखबार है। हर घर में तमाम बच्चे दिन भर में न जाने कितनी ड्राइंग बना रहे हैं। उनका विश्लेषण करने के लिए कोई कला विशेषज्ञ क्यों नहीं है। मकबूल फिदा की कला के मर्म को समझने वाले चाहिए तो इन बच्चों की कला के मर्म में भी झांका जाना चाहिए।

ये सिर्फ स्कूल के बोर्ड पर टांगने के लिए नहीं हैं। यह बात इसलिए नहीं कह रहा कि मेरी बेटी अखबार में छपना चाहती है। इसलिए भी कह रहा हूं कि कई स्कूलों में टंगे ड्राइंग पर मेरी नज़र पड़ती है। हर बच्चा सूरज,बाघ और आसमान को अलग अलग रंगों,आकारों और नज़रों से देखता है। किसी को यह काम करना चाहिए। पता करना चाहिए कि बच्चे बादलों को किन किन रंगों से रंगना पसंद करते हैं, देखना चाहिए कि बच्चों की कल्पना में मिसाइल का रंग लाल क्यों हैं। तिन्नी की एक ड्राइंग परेशान कर रही है। गहरे लाल रंग का राकेट। उसका किनारे का रंग काला है और पन्ने के चारों तरफ नीले रंग का बार्डर।
उसने एक शिवलिंग बनाई है। काले शिवलिंग पर लाल रंग का टीका लगा दिया है। लाल रंग से सना एक हाथ है जो पूजा करता है। नारंगी और पीले रंग में वो परिवार का पूरा चित्र देखती है। न जाने कितने बच्चों की कमाल की कृतियां मां बाप सहेज कर रख रहे हैं जो बाद में पुराने होते होते, मकान बदलते बदलते कहीं खो जाएंगे। एकाध बचे रह जाएंगे। कभी किसी को दिखाने के लिए।

तोषी के ड्राइंग्स की एकल प्रदर्शनी है- लाहौर केGREYNOISEमें


आज तोषी यानी विधा सौम्या के ड्राइंग्स की एकल प्रदर्शनी है- लाहौर में- "Song of the Sirens" शीर्षक से, शाम 7 बजे से गैलरी GREYNOISE, लाहौर में. वह अपने एग्जिबिशन के लिए वहीं है और रात-दिन काम कर रही है.
विधा 2008-09 में भी लाहौर में थी और वहां उसने अपने काम के बल पर बहुत ख्याति के साथ साथ असीमित प्यार, स्नेह व अपनापा पाया था, चाहे वे उसके हॉस्टल के गार्ड च्चा थे या ख़नसामा, या बस के ड्राइवर चचा या हॉस्टल में काम करनेवाली बाजी.
उसके काम में एक अलग तरह की डिटेल्स हैं जो बहुत मेहनत खोजती है. मैने उसे यहां रात-रात हर जग कर काम करते देखा है. तीन चार घंटे की नींद के बाद फिर से काम के लिए तैयार!
आज देश और बडे घराने और बडे बडे लोग "अमन की आशा" कर रहे हैं हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच. विधा यह काम पिछले दो साल से करती आ रही है, अपने चित्रों, ड्राइंगों और प्रदर्शनियों के ज़रिये. पाकिस्तान के प्रति, वहां के लोगों के प्रति उसके मन में बहुत लगाव है और वह यह शिद्दत से मानती है कि आम आदमी बस अमन, मुहब्बत और अपनी एक चैन की ज़िन्दगी चाहता है, वह चाहे पाकिस्तान के लोग हों या हिन्दुस्तान के.
अभी वह अपने एग्जिबिशन में व्यस्त होगी. उसके बारे में लिखते हुए मुझे बेहद अच्छा लग रहा है और एक अलग से गगर्व का अहसास हो रहा है. अहसास इसलिये नहीं कि वह मेरी बेटी है, बल्कि इसलिये भी कि वह दोनों मुल्कों के बीच अमन के एक दूत के रूप में काम कर रही है. उसकी यह मेहनत ज़रूर रंग लाएगी. आमेन!

कोशी, कचरा, भगवान व फोटो

कोशी का ब्लॉग है- Koshy's

इस पर वह अपनी बातें लिखती है. अपने काम, अपने फैशन व पहनावे आदि से सम्बन्धित. वह फोटो भी खीचती है. मगर इसके साथ साथ वह सामाजिक मुद्दों से भी जुडी रहती है और उसके भीतर उसका अपना ह्यूमर भी है. वह कचरा कभी भी न तो सडक पर खुद फेंकती है, न अपनी पहचान में किसी को फेंकने देती है. एक दिन जब वह मुंबई के लोखंडवाला परिसर से गुजर रही थी तो उसने यह दृश्य देखा और उसे अपने कैमरे में कैद कर लिया और अपने ब्लॉग पर डाला. आप भी देखें, आनन्द लें और मन करे तो अपने विचार भी व्यक्त करें.


YAHAN KACHRA PHEKNA MANA HAI


i am too bored to write what i am wearing!




दो- दो कुलों की लाज को ढोती हैं बेटियाँ

कल (२६ जनवरी २०१०) पुरानी फाइलों में दबी एक चीज़ मिली लैमिनेटेड की हुई. वह कोई प्रमाणपत्र या रसीद नहीं थी बल्कि एक कविता थी. ज़ोर देने पर याद आया कि जब मैं प्लस चैनल के जुहू तारा रोड वाले ऑफिस में काम करता था तब वह मुझे एक फिल्म वितरक मित्र राणा साहब ने दी थी. कविता पढ़ी तो बड़ी मार्मिक लगी थी और उसे मैंने संभाल कर रख लिया था. अफसोस की बात है कि इसमें कवि का नाम नहीं है बल्कि संकलनकर्ता के नाम पर किन्हीं रामगोपाल बंसल जी का नाम है जो नीमच के रहने वाले हैं. यदि पाठकों को कवि का नाम मालूम हो तो कृपया टिप्पणी में दर्ज़ कर दें. बहरहाल आप वह कविता पढ़िए-

ओस की एक बूँद-सी होती हैं बेटियाँ
स्पर्श खुरदुरा हो तो रोती हैं बेटियाँ
रौशन करेगा बेटा तो बस एक ही कुल को
दो- दो कुलों की लाज को ढोती हैं बेटियाँ
कोई नहीं है दोस्तो! एक-दूसरे से कम
हीरा अगर है बेटा, तो मोती हैं बेटियाँ
काँटों की राह पे ये खुद ही चलती रहेंगी
औरों के लिए फूल ही बोती हैं बेटियाँ
विधि का विधान है, यही दुनिया की रस्म है
मुट्ठी में भरे नीर-सी होती है बेटियाँ.