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दो- दो कुलों की लाज को ढोती हैं बेटियाँ

कल (२६ जनवरी २०१०) पुरानी फाइलों में दबी एक चीज़ मिली लैमिनेटेड की हुई. वह कोई प्रमाणपत्र या रसीद नहीं थी बल्कि एक कविता थी. ज़ोर देने पर याद आया कि जब मैं प्लस चैनल के जुहू तारा रोड वाले ऑफिस में काम करता था तब वह मुझे एक फिल्म वितरक मित्र राणा साहब ने दी थी. कविता पढ़ी तो बड़ी मार्मिक लगी थी और उसे मैंने संभाल कर रख लिया था. अफसोस की बात है कि इसमें कवि का नाम नहीं है बल्कि संकलनकर्ता के नाम पर किन्हीं रामगोपाल बंसल जी का नाम है जो नीमच के रहने वाले हैं. यदि पाठकों को कवि का नाम मालूम हो तो कृपया टिप्पणी में दर्ज़ कर दें. बहरहाल आप वह कविता पढ़िए-

ओस की एक बूँद-सी होती हैं बेटियाँ
स्पर्श खुरदुरा हो तो रोती हैं बेटियाँ
रौशन करेगा बेटा तो बस एक ही कुल को
दो- दो कुलों की लाज को ढोती हैं बेटियाँ
कोई नहीं है दोस्तो! एक-दूसरे से कम
हीरा अगर है बेटा, तो मोती हैं बेटियाँ
काँटों की राह पे ये खुद ही चलती रहेंगी
औरों के लिए फूल ही बोती हैं बेटियाँ
विधि का विधान है, यही दुनिया की रस्म है
मुट्ठी में भरे नीर-सी होती है बेटियाँ.