अनंत तस्‍वीरें दृश्‍यावलियां ख़बर ब्‍लॉग्‍स

हाय रे ये बेटियाँ

अभी- अभी २९ मार्च को मेरा जन्म दिन था। अब आजकल जन्म दिन १२ बजे रात को ही मना लिया जता है। सो २८ की रात को जब मैं एक नाटक देखकर घर लौटी तो कोशी केक लेकर मेरा इंतज़ार कर रही थी। ने खाना नही खाया था। १२ बजे, केक कटा, हैप्पी बर्थ दे का अंतर्राष्ट्रीय गान हुआ। दूसरे दिन कोशी ने मुझे बरा प्यारा सा गले और कान का सेट भेंट किया। आज इसे पहन कर दफ्तर आई हूँ और सभी इसकी बड़ी तारीफ़ कर रहे हैं। मुझे भी बताने में बहुत अच्छा लग रहा है कि इसे मेरी बेटी ने प्रेजेंट किया है। २९ को फ़िर भी मैं बेचैन थी। तोषी का फोन नही आया था। जन्म दिन था न सो मैं भी बच्ची बन गई थी। अपनी ही बच्ची कि बच्ची। सो अपने अभिमान में थी कि फोन तो उसे करना चाहिए। आशंका भी हो रही थी कि कहीं वह भूल तो नहीं गई मेरा जन्म दिन। आख़िर मेरा जन्म दिन मनाने की आदत उसी ने तो डाली है। अब वही भूल गई? कि ११ बजे के करिओब उसका फोन आया। और मेरा जन्म दिन पूरा हुआ। बेटियों के बिना कुछ भी पूरा कहाँ लगता है। याद आता है, टैब मैं अपनी माँ की बेटी थी। हिन्दी फिल्मों मी खूब जन दिन मनाते देखती थी, सो हमने भी अपना जन्म दिन मनाने की ठानी। टैब केक का कॉन्सेप्ट कहां था छोटी सी जगह में॥ सो जनाब, हमने हलुआ बनाया, उसे ही केक की तरह सजाया, उस पर घर में जलाईई जानेवाली मोमबत्ती जलाई और उसे ही बुझा दी। किसी ने जन्म दिन का अंतर्राष्ट्रीय गान नहीं गाया। (किसी को आता ही नही था। मुझे पता था, पर मैं ख़ुद अपने लिए कैसे गाती? ) माँ ने मुझे एक रुपया दिया। आज जन्म दिन पर मान की और उस एक रुपये की बहुत याद आती है। बाद में अपनी दीदी के जम दिन पर भी वही हलुए वाला केक बनाया। मैंने उसे एक अठन्नी दी। वह रुपया और वह अठन्नी नहीं भूलती। आज के समय में तो और भी याद आती है। और कितना अच्छा लगता है, बेटी बन जाना। बेटियों की तरह जीना। आज माँ होती तो और भी अच्छा लगता। है ना?

तोषी और बिरियानी

तोषी टैब बहुत छोटी थी। मैंने नौंन वेज खाना शुरू ही किया था। बनाना आता नहीं था। आज भी बनने के नाम पर कंपकंपी छूट जाती है। तोषी टैब दूसरी या तीसरी क्लास में थी। मैंने उसके लिए चिकन बिरियानी बनी। पहली बार। परोसा। वह खाने लगी। वह खा रही थी और मैं उसे इस उम्मीद में देखे जा रही थी कि अब वह इसके बारे में कुछ बोलेगी। जब काफी देर हो चुकी और उसने दूसरी बार परोसन लेकर भी खाना शुरू कर दिया, लेकिन कुछ कहा नहीं, टैब मुझसे रहा नहीं गया। बड़ी आतुरता और उम्मिओद से भरकर मैंने पूछ, "बेटू, बिरियानी कैसी बनी है?" उसने एक बार बिरियानी को देखा, फ़िर मुझे, फ़िर बिरियानी को और फ़िर से मुझे। इसके बाद बड़ी गंभीरता से बोली- "हाँ, ठीक ही बना है। दो=चार बार और बनाने लगोगी तो अच्छा बनाने लग जाओगी। " आज थोडा थिक-ठाक ही बना लेती हूँबिरियानी, मगर जब कभी कोई प्रसंग आता है, ख़ास तौर से बिरियानी का, तो यह बात याद आती ही है। अब तो और

भी, जब वह लाहौर में है, बहुत अच्छा खाना बनाती है, दीवाली में उसने अपने दोस्तों के लिए ८० लड्डू बनाये तो एक दिन ३० लोगों के लिए दोसा सांभर चटनी बनाई। अभी होली में उसने अपने सभी दोस्तों के साथ न केवल होली खेली, बल्कि ४० लोगों को खाना बनाकर खिलाया। ५ किलो matan बनाया और रस पुए, दही बड़ी और जो सब उसने मुझे होली पर बनते देख हाय, वह सब कुछ। इतना स्वादिष्ट खाना बनाती है कि आप उंगलियाँ चाटते रह जाएं। मैंने तो उसे कह दुसे कह भी दिया कि उसकी शादी में मैं खाना बनाने valii नहीं रखने वाली।

ताज़‍िल गोलमई बाप, शाज़‍िलु बेटी

  
ताज़‍िल गोलमई एक समय एनडीटीवी इंडिया के क्राइम टाइम एंकर थे। प्राइम टाइम एंकर से ज्यादा लोग उन्‍हें जानते रहे हैं। आज कल आधी रात के बुलेटिन्‍स पढ़ते हैं। रिपोर्टर तो ख़ैर कमाल के हैं ही, किस्‍सागो भी लाजवाब हैं। ख़बर का कारोबार ख़त्‍म करके ताज़‍िल के साथ बातचीत में कैसे रात बीत जाती है, पता नहीं चलता। तस्‍वीर में न्‍यूज़ रूम के बीच में वे रंगदारी दिखा रहे हैं। इस छवि को अपने मोबाइल कैमरे में उतारा है क्राइम रिपोर्टर मुकेश सिंह सेंगर ने। वैसे छवि गोलमई ताज़‍िल की बीवी का नाम है। लेकिन यहां ताज़‍िल के साथ जो तस्‍वीर है, वो शाज़‍िलु की है। शाज़‍िलु ताज़‍िल की बेटी है। अदाओं के मामले में ताज़ि‍ल को पीछे छोड़ती शाज़‍िलु की ये छवि ख़ास तौर पर बेटियों के ब्‍लॉग के लिए हमने उड़ायी है।

मुलगी शिकली प्रगति झाली

मुंबई में आजकल किसी न किसी ऑटो के पीछे लिखा मिल जाता है, यह नारा- 'मुलगी शिकली प्रगति झाली,'' यानी बेटी की सीख, जग की प्रगति। बहुत गहरी लाइन है यह। पहले भी कहा जाता रहा है कि एक लड़की पढ़ गई तो समझो, तीन पीढियां पढ़ गईं। 'मुलगी शिकली प्रगति झाली ' में केवल उस लड़की की प्रगति की बात नहीं कही गई है, बल्कि उसके सीखने से सम्पूर्ण विश्व की प्रगति की बात कही गई है। एक और नारा दीखता है- "मुलगी शिकेल, सर्वाना शिकवेल', यानी बेटी सीखेगी, सबको सिखाएगी। बेटी अपनी हो या किसी और की, कम से कम उसकी पढाई में हम कहीं से योगदान कर सकें तो समझे, देश की प्रगति में हमने एक नन्हा सा योगदान कर दिया है। आज मेरी तोषी और कोशी दोनों पढ़ रही है, तो इसके साथ ही मुझे संतोष है कि अपनी संस्था 'अवितोको' के माध्यम से कुछ और बेटियाँ भी पढ़ रहीहैं। इनमें से एक है, नेहा। दूसरी कक्षा से वह हमारे साथ है। उसके पिता किसी प्राइवेट कम्पनी में चपरासी हैं और माँ मन्दिर में फूल बेचने का काम करती है। फ़िर भी अपनी बेटी को एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढाने का सपना रखे हुई है। आज नेहा ९वी में है। पढाई के प्रति गंभीर है और आगे भी पढ़ना चाहती है। मेरे घर में काम करती है- माला। वह अपनी दोनों बेटियों को पढा रही है। मैं उनकी पढाई में भी मददगार बन पा रही हूँ, यह मेरे लिए अपने सामाजिक दायित्व को पूरा करने के समान है, क्योंकि मैंने अपनी माँ को देखा था कि ससुराल में होने के बावजूद, सर पर पल्लू रख कर वे घर -घर घूम कर बेटियों को स्कूल भेजने का आवाहन करती रहती थीं। बेटियाँ आज अन्तरिक्ष पर हैं, मैनेजमेंट के उच्चतम पदों पर हैं। उनकी काबिलियत के पंख को मज़बूत करने और उनमें उड़ान भरने की ताक़त देने का काम हमारा है। ऑटो का संदेश 'मुलगी शिकली प्रगति झाली' हम सबके लिए है।
"बेटियाँ जन्मती हैं/ उग जाती हैं, घास-फूस सी/ बढ़ जाती हैं, खर -पतवार सी/बेटियाँ जन्मती हैं और थाम लेती हैं आकाश को अपनी हथेली / भर लेती हैं इन्द्र धनुष को अपने ह्रदय में। बेटियाँ कभी भी नहीं रोतीं अपना रोना, उनकी रुलाई में है जग का क्रंदन/ बेटियाँ हंसती हैं और हंसा जाती हैं सारीकायनात को। " आये, हम भी उनके साथ हँसे, उनकी शिक्षा- दीक्षा में शामिल हो कर और कहें ही नहीं, बल्कि कर के दिखाए कि हाँ सही में, - 'मुलगी शिकली प्रगति झाली'।

मुझे साबित करने की जरुरत नहीं

अपने पिछले पोस्ट में , एक बेटी की मां का हलफनामा, आपकी खरी-खरी टिप्पणियां मिली थी, जिसे मैं उस वक्त पढ़ नहीं पाई थी।
अपने तय समय से तकरीबन १५ दिन पहले मुझे अस्पताल जाना पड़ा. रास्ते में भी क्या मैं तो ऑपरेशन थियेटर तक में, मेरे मन में यही दबी इच्छा थी कि मुझे बेटा ही होगा. बेटे से मुझे कतई प्यार नहीं है पर एक पल के लिए मैं चाहती थी कि कोई कहे तुम्हें बेटा हुआ है. बस इतनी ही देर के लिए मुझे बेटा चाहिए. जैसा कि मैं मानती हूं कि हर औरत अपनी कोख को साबित करने के लिए ही बच्चे जन्मती है. ठीक उसी तरह मैं भी अपने को सिर्फ साबित करने के लिए ही बेटा चाहती थी और यह भी चाहती थी कि वह बेटा फिर बेटी में बदल जाए.ऐसा संभव नहीं, यह हम आप जानते हैं पर सोच तो सोच है,
आपरेशन के दौरान गुजरने पर मन ड़रा हुआ था और कुछ सैकेंड के बाद ही मेरी डाक्टर ने जब बताया कि मुझे बिटिया हुई है और साथ ही उसकी रोने की दो हल्की सी आवाज जब मैंने सुनी तो मन झूम उठा. दो तीन मिनट बाद जब मैंने उसे देख- लाल रंग की गुडिया, टप टप बटन की तरह आंख खोले मुझे देख रही थी. और उसे फिर बाहर ले जाया गया. मैं बहुत खुश थी पता नहीं क्यों मुझे बेटे की याद भी नहीं आई. इतनी सुन्दर सी बेटी देख कर मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह मेरी ही बेटी है. आपरेशन तो दस मिनट में ही खत्म हो गया और बच्चे को नरसरी में रख दिया गया. मेरे पति, मेरी सास व ननद उसे केवल पांच दस मिनट के लिए ही देख पाए थे. मैं बाहर निकल कर सब से यही पूछ रही थी कि बहुत सुन्दर थी ना. सभी बहुत खुश थे और मैं सबसे ज्यादा खुश थी पता नहीं क्यों मैं बहुत खुश थी. शायद मैंने उस एक पल को जीत लिया था, जब मैने एक पल के लिए लड़का नहीं होने का अफसोस अपनी बड़ी बेटी के वक्त महसूस किया था. मैने अपने पिछले हलफनामें में यह स्वीकार किया था कि मैं एक पल के लिए बेटा नहीं होने के कारण क्षुब्ध हुई थी और फिर कभी नहीं हुई थी. पर इस बार मैं कुंठा मुक्त हो कर उस पल को जीत ली थी. ( किसी टिप्पणी थी कि वाह क्या प्रगतिशीलता है) पर अब मैं यह अनुभव करती हूं कि सचमुच दूसरी बेटी क्या तीसरी बेटी को भी बेटे होने की तरह अनुभव करना प्रगतिशीलता है. ( हम क्यों बेटे की ही सिर्फ इच्छा रखते हैं क्यों नहीं बेटी की इच्छा रख सकते. क्या आपने कभी सुना है कि बेटे होने पर किसी ने उसे नमक चटा कर मार दिया हो.)

दो दिन तो मैं बहुत खुश होती रही. कितने फोन आते रहे और ना जाने कितने जाते रहे. कई बार मजा आता तो कई बार सामने वाले का उत्साह में कमी देख दुःखी हो जाती थी। मन नहीं करता कि किसी दूसरे को फोन कर के बताए. पर क्या करें समाजिकता थी, नहीं बताते तो लोग कहना शुरु करते कि अच्छा लड़की हुई इसलिए नहीं बताया. और अगर बताते तो वहां से एक जैसा नीरस जवाब , चलो कोई बात नहीं, अपना का ख्याल रखना. मुझे ये कोई बात नहीं सुनकर इतनी कोफ्त होती थी कि क्या बतांऊ. किसी ने यह कहने की कम से कम हिम्मत नहीं कि अगली बार बेटा ही होगा. अपनी खुशी कम होती जा रही थी, मैं महसूस करने लगी. और फिर मैंने फोन पर बात करना ही बंद कर दिया. फिर बात हुई बेटी के पैदा होने पर जश्न मनाने की। जश्न के तौर पर दावत (पार्टी) की बात मां ने उठाई क्यों कि हमारे घर के सारे बच्चों कि पार्टी हुई है तो इसकी कैसे नहीं होगी. पर मुझे लग रहा था कि पार्टी करना मतलब यह साबित करना कि मैं दूसरी बेटी होने पर भी खुश हूं. मैं खुश हूं इसे मुझे साबित करने की जरुरत नहीं है.

फ़िर से बोलोगी झूठ?

बच्चे भी कभी कभी ऐसा कुछ कह जाते हैं कि बस। उनकी मासूम बातें आपका गुस्सा तो काफूर कर ही देता है, aapake मन के तनाव को खत्म भी कर देता है और आपको अपनी जैसी ही सरल मुस्कान से सराबोर भी कर देता है। मेरे देवर अतुल की छोटी बिटिया है- सुमि। बहुत ही छोटी थी, लगभग तीनेक साल की। उसने एक दिन सभी से छुपा कर कुछ खा लिया। पाता चलने पर जब उससे पूछा गया तो किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह उसने भी छुपा कर खाने की बात को खारिज कर दिया। अजय ने उसे डांटा। फ़िर कहा-" फ़िर से बोलोगी झूठ?" उसने भी बड़ी ही दबंगता से कहा- "हाँ." उसकी इस दबंगता से सभी हैरान! अजय ने तनिक गुस्से में कहा- "अच्छा? फ़िर से झूठ बोलोगी? बोलो तो ज़रा?" सुमि ने भी उतने ही जोर से कहा- "झूठ ।" फ़िर क्या था! किसका गुस्सा और कैसा गुस्सा! सभी ठठा कर हंस पड़े। आज भी यह बात हम सभी को बहुत गुदगुदाती है।

सभी के लिए यह कविता

तोषी जब छोटी थी, तब उसे मैं अक्सर बाबा नागार्जुन की यह कविता सुनाया करती। उसने इसे इतनी बार सुना कि उसे यह कविता याद हो गई। एक बार उसने अपने स्कूल में भी इसे सुनाया। बाबा की खासियत थी, बेहद सरल शब्दों में अपनी बात कहना। यह कविता तो ख़ास तौर पर बहुत सीधी और मन को छू जानेवाली है। इस कविता में कहीं कोई विराम चिन्ह नहीं है, जिसे बाबा ने कहा था कि यह निरंतरता है स्थिति की। बाद में यह कविता मैंने कोशी को भी सुनाई। आपके लिए यहाँ यह कविता-
बहुत दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
बहुत दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
बहुत दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
बहुत दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अन्दर बहुत दिनों के बाद
धुआं उठा आँगन के ऊपर बहुत दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें बहुत दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की आंखें बहुत दिनों के बाद

फ़िर से बेटी?


आज भी याद है, जब कोशी होनेवाली थी। तोषी हमारे साथ पहले से थीं, इसलिए सभी ने एक स्वर से कहना शुरू कर दिया कि अब तोबेटा हो जाना चाहिए। परिवार पूरा हो जायेगा। एक कम्पलीट फैमिली। कोई मुझसे ये नही पूछ रहा था कि मुझे क्या चाहिए? हम चाहते तो उसका लिंग परीक्षण करवा सकते थे। मगर अचानक परिणाम के सामने आने की खुशी अनुमानित खुशी से कई गुना ज़्यादा होती है। दूसरे, हमें इसकी कोई ज़रूरत ही नही थी। मैं तो यह देख कर हैरान थी कि शहर के सभी काजी दुबले हो रहे थे। मैंने पूछा कि अगर मुझे पहले तोषी के बदले कोई तोष या रमेश या महेश हुआ रहता तो भी आपलोग क्या यही कहते कि अब तो बेटी होनी ही चाहिए? नहीं, तब आप यह कहते कि कुछ भी हो, चलेगा। यह मेरे साथ नहीं, मगर उन महिलाओं के साथ तो होता ही है, जिनकी पहली संतान बेटा है। और दरअसल मुझे बेटा नहीं चाहिए, आपकी सूचना के लिए। यकीन करेंगे आप कि मेरे उस ८ मंजिला ऑफिस इमारत में जंगल में लगी आग की तरह ख़बर फ़ैल गई कि विभा को दुबारे भी बेटी ही चाहिए। लोग आ- आ कर पूछने लगे क्यों भाई, , ऐसा क्यों? मैं शायद तब इतनी मुखर नहीं थी, फ़िर भी बोली थी कि आख़िर यह मैं चाहती हूँ, मैं माँ बन रही हूँ, मेरी मर्जी कि मैं क्या चाहती हूँ। कईयों ने तो यह भी पूछ लिया कि अगर बेटा हुआ तो क्या करेंगी? उसे फेंक देंगी या अनाथालय में दे देंगी। खैर, फेंकने या अनाथालय का मुंह देखने की नौबत नही आई, क्योंकि मेरे घर में तोषी की बहन कोशी आई। आपरेशन थिएटर में ही मैंने पूछ लियाथा, जब उसे पेट से निकाला गया, उसकी कांय की आवाज़ और उसकी पीठ मैं सुन व देख पाई थी। ओह, विरल अनुभव था वह, मुझसे रहा नही गया और मैंने पूछ ही लिया- "What is the child? ' "Baby girl." इस उत्तर ने मुझे फूल से भी ज़्यादा हल्का कर दिया। एनीस्थिसिया ने भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। मैं गहरी नींद सो गई थी। ईथर और खुशी के नशे के मिले जुले असर में। होश आने पर जब उसे देखा, तब मेरे मन में एक पक्ति गूँज उठी- 'मेरे घर आई एक नन्ही परी'
अब यह नन्ही परी अपनी उम्र की यात्रा तय करते करते १०वी कक्षा तक पहुँच चुकी है। १२ मार्च से होनेवाली अपनी परीक्षा की तैयारी में लगी है, मगर मुझे अभी भी नही भूलता वह दिन, जब वह आई थी। कितनी समझदार हो गई है वह। मेरे दफ्तर से लौटने पर मेरी तबियत ख़राब देखती है टू मेरे हाथ से मेरा बैग, थैला ले लेती है, पानी ला कर देती है। अभी उसके दादा दादी आए थे, अपनी दादी की साड़ी धूप में डालने का काम बगैर किसी के कहे -सुने ले लिया था। सचमुच, कितनी प्यारी व समझदार होती हैं बेटियाँ।

तोषी के जन्म दिन पर ...



मेरी बिटिया तोषी का जन्म दिन ५ मार्च को था। मैं उसी दिन इसे इस ब्लाग पर डालना चाह रही थी, मगर नही हो पाया। वह पिछले सितम्बर, २००७ से पाकिस्तान के लाहौर में है। लाहौर से याद आता है 'जिन लाहौर नई वेख्या समझो वो जम्याई नही'। तोषी ने लाहौर देख लिया। आज अगर सीमा की बात नही रहती तो हम सब भी यह शहर देख पाते और इसकी माटी की खूबी को महसूस कर पाते। तोषी आर्टिस्ट है। अपनी पढाई के सिलसिले मे वह वहां है। जिस तरह का प्रेम, आदर, सम्मान स्नेह उसे मिल रहा है, अपनी प्रतिभा के कारण, अपनी शालीनता के कारण और सबसे बड़ी बात, अपनी भारतीयता के कारण, वह सोचने पर मज़बूर कर देता है कि काश, ये सीमाएं नही रहतीं। उसके जन्म दिन पर अपनी चन्द लाइनें । आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिन है । वह अभी अपनी दुनिया में कदम रख ही रही है, आज के दिन वह अपनी ताक़त को पहचाने और अपनी शक्ति से अपने साथ साथ औरों को भी ताक़त प्रदान करे। उसके यह कविता -


आओ तुम्हारे लिए बुन दूँ एक रात/ तारों से जगमगाती। /चाँद से नहाती/ सपनों से भीगी भीगी/ बहती हवाओं में इच्छाओं के झूमते-गाते झोंके/ मेरी बेटू, ओस से भीगीसुबह/ जब होगी/ तुम आँखें खोलोगी अपने सपनों के साथ/ तुम्हारी अलसाई आंखों के कोए से झाकेंगे गेंदे -गुलाब/ सूरज टैब अपने दामन से निकाल छोड़ जायेगा सतरंगी किरणों की बारिश/ गाती -मुस्काती आएँगी चिदियाँ मचयेंगी शोर-खोलो, ज़ल्दी खोलो, खिड़कियाँ / हटाओ भारी- भारी परदे/हम आई हैं, घुंघरुओं सी बजती, नीम सी सरसराती/ महसूस करती हूँ/ अपने ह्रदय के भीतर/ बहुत गहरे/यादों के झोंके मुझे/पहुंचा देते हैं/यादों की पोतालियों के पास/नवजात चूजों से गुलाबी तलवे/नन्हें हाथों से खुजाती अपना माथा/दूध पीना छोड़, किलकारी भर भर, बतियाती, मुंह से फेंकती दूध की फुहार/नन्ही छडी से थाप देती, ढोल बजाती तुम/भर देह मिट्टी / आंखों में काजल की मोटी धार/मन में उठाती आशंका- नज़र ना लग जाए/सबसे ज्यादा माँ की ही/घुघुआ मन्ना पर ही सो जाती गहरी नींद/बीच माथे पर/दो चुटिया- 'खग्लोश'/ मेरी गुदगुदी से खिलखिलाती, रन झुन बजती तुम/यूँ ही किलकती रहो/तुम- आज, कल, सदा....!

काम करते हैं लोग

बहुत पहले तोषी को यह कविता पढाई थी.बाद में कोशी ने भी इसे पढ़ा.बच्चों की एक किताब में यह कविता संबंधित चित्रों के साथ छपी थी.जितनी पंक्तियाँ हैं,उतने ही पृष्ठों में उतने चित्रों के साथ छपी तस्वीरों का प्रभाव यहाँ नहीं ला सकता मैं.काम के महत्व को इतने सरल शब्दों में किसी ने नहीं बताया.आज तोषी के जन्मदिन पर यह कविता सभी के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.इस कविता की रचयिता हैं अनिता हार्पर...

काम करते हैं लोग
लोग हर तरह के काम करते हैं
कुछ लोग एक साथ काम करते हैं
कुछ लोग अकेले काम करते हैं
कुछ लोग ऊंचाई पर चढ़ कर काम करते हैं
कुछ लोग काम करते हैं,जबकि दूसरे सोते हैं
कुछ लोग सोते हैं,जबकि दूसरे काम कर रहे होते हैं
कुछ लोग अपना काम पसंद करते हैं
कुछ लोग अपना काम पसंद नहीं करते हैं
कुछ लोग सिर्फ़ एक काम करते हैं
कुछ लोग एक से अधिक काम करते हैं
कुछ लोग काफी देर तक काम करते हैं
कुछ लोग थोड़े समय काम करते हैं
कुछ लोग अपने काम के ढेर सारे पैसे पाते हैं
कुछ लोग कम पैसे पाते हें
कुछ लोगों को काम नहीं मिलता
कुछ लोग काम करते हें,मगर पैसे नहीं पाते
सारी दुनिया में लोग काम करते हैं.