तोषी जब छोटी थी, तब उसे मैं अक्सर बाबा नागार्जुन की यह कविता सुनाया करती। उसने इसे इतनी बार सुना कि उसे यह कविता याद हो गई। एक बार उसने अपने स्कूल में भी इसे सुनाया। बाबा की खासियत थी, बेहद सरल शब्दों में अपनी बात कहना। यह कविता तो ख़ास तौर पर बहुत सीधी और मन को छू जानेवाली है। इस कविता में कहीं कोई विराम चिन्ह नहीं है, जिसे बाबा ने कहा था कि यह निरंतरता है स्थिति की। बाद में यह कविता मैंने कोशी को भी सुनाई। आपके लिए यहाँ यह कविता-
बहुत दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
बहुत दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
बहुत दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
बहुत दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अन्दर बहुत दिनों के बाद
धुआं उठा आँगन के ऊपर बहुत दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें बहुत दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की आंखें बहुत दिनों के बाद
2 comments:
bahut hi accha likha hai aap ne .badhai
umda hai vibha ji bahut badia
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