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अर्थ दे (धरती दिवस) और कोशी

पिछले शनिवार को विश्व भर में पर्यावरण के बचाव के लिए अर्थ दे यानी धरती दिवस मनाया गया। उस दिन सभी से अपील की गई की वे अपने घरों के बिजली, पंखे व बिजली के अन्य उपकरण रात साधे आठ बजे से साक्स्धे नौ बजे तक बंद रखें। यानी एक घंटा। यूँ यह कोई मुश्किल काम नहीं था, मगर मुम्बई में बिजली नहीं जाती। (अभी तक तो शुक्र है। आगे का पाता नहीं) हमलोग तो अपना पूरा समय, बीए, एमए की पूरी की पूरी पढाई ही लैंप के साए में कर आए थे। मगर एक घंटा बिजली न जलाए रखना मुम्बई वासियों के लिए एक सजा की माफिक ही लग रहा था। कोशी ने दो दिन पहले से ही हमें इस बाबत कह रखा था की बिजली नहीं जलानी है।
शनिवार की शाम उसने घर की मोमबत्तियां खोजीं, निकालीं, साफ़ की और एक घंटा बिजली न जलाने के लिए तय्यार हो गई। हम सब भी इसके लिए तैयार हो गए। शायद ध्यान न भी देते, मगर चूंकि कोशी ने कह रखा था, इसलिए उसकी बात न मानना बच्चे का दिल दुखाना होता। इसलिए भी हम सभी तैयार हो गए। मुझे इस बात की तसल्ली रही की उसके भीतर पर्यावरण को लेकर एक चिंता है। उसकी यह चिंता दीवाली के समय भी दिखी थी, जब उसने पटाखे आदि छुडाने से साफ़ मना कर दिया यह कहते हुए की यह ग्लोबल वार्मिंग को और भी बढाता है।
वह रात को आठ बजे अपने दोस्तों से मिलाने जाती है। जब वह लौटी, तब हमने उसे छेदा की तुम तो नीचे लाईट में खेल रही होगी, जब की हम सब अंधेरे में बेठे रहे॥ उसने तुंरत जवाब दिया की वह एक घंटे अपनी दोस्त झिमली के घर अँधेरा करके खेल रहे थे। मुझे इस बात का संतोष हुआ की उसने केवल कहने के लिए सभी को नहीं कहा, बल्कि ख़ुद भी उस पर अमल किया। हम सभी के लिए यह बड़ा ही दुखद रहा की हमारे सभी घरों में बत्तियां जलती रहीं। हम सोचने लगे की हम केवल मांग करते रहते हैं। समाज, सरकार, व्यवस्था पर सवाल खरे करते रहते हैं। उन्हें भला-बुरा कहते हैं। मगर जब ख़ुद से कुछ कराने की बारी आती है, तब स्वेच्छा से कुछ भी नही करना पसंद करते। किसी ने कहा की बिलालों को चाहिए था था की वे पूरी बिल्डिंग की ही लाईट काट देते एक घंटे के लिए। यह करना मुश्किल नहीं था। बिल्डिंग की सोसाइटी चाहती तो यह काम कर सकती थी। मगर यह तो एक निजी अपील थी सभी से एक स्वेच्छया सहयोग देने की बात थी। क्यों हम अपने मन से कुछ भी सहयोग देने से पीछे रह जाते है? मुझे याद है, १९६५ में पाकिस्तान से युद्ध के बाद जब देश पर खाद्यान का संकट आया था और अमेरिका ने गेहूं के निर्यात पर शर्तें रखी थीं, तब हमारे उस समय के प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपील की थी की सभी देश वासी सोमावार्र को एक शाम भोजन स्वेच्छा से त्याग दें.इससे जितनी बचत होगी, उतने में हमारे देश से अनाज का संकट ताल जायेगा। हम तब बहुत छोटे थे, मगर स्कूलों तक में यह बात प्रचारित की गई थी। सभी ने एक शाम का भोजन त्यागा था।
आज वह सेवा भाव, वह स्वेच्छा से त्याग कहाँ गम हो गया है? मुझे खुशी है की कोशी, जो अब नई पीढी का प्रतिनिधित्व कर रही है, सामाजिक, वैश्विक, पर्यावारानीय चिंता से जुडी है और अपना योगदान यथा शक्ति कर रही है। आइये, ऐसे बच्चों का साथ दें, उनकी चिन्ताओं से ही कम से कम जुडें, अगर अपनी चिंता में हम सामाजिक सरोकार को शामिल नहीं कर पाते हैः.

4 comments:

अनिल कान्त said...

विचारणीय लेख लिखा है आपने ....सच ही तो कहा है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Anonymous said...

काफी उम्दा सोच का प्रतीक है ये ब्लॉग .... क्या मैं भी अपनी बिटिया की बातें यहाँ शेयर कर सकता हूँ.

दीपक said...

lekh padhakar achha laga !!aapane shi bat kahi lene ke nam par sabhi taiyyar magar dene ke nam par sabhi chup.

पुनीता said...

आप बहुत बढ़िया लिखती हैं। मुझे बहुत अच्छा लगा। अर्थ डे के दिन हमलोगों ने भी सोचा था लाईट नहीं जलाने की पर यह सोच कर आइडिया ड्राप कर दिया कि गाजियाबाद में रहककर हमलोग हर दिन 10 घंटे का बिजली कट से गुजरते हैं तो हमारे लिए अर्थ डे तो रोज ही होता है।
पर फिर भी आपने बिल्कुल सही कहा वह दिन शायद लद गए जब कोई प्रधानमंत्री एक समय ना खाने की जनता से अपील करेगें। ऐसे आज के समय करें तो सरकार गिर गई समझो। वैसे भी कांग्रेस गरीबी,भूख नहीं मिटा पाई है।
मैं भी आपकी लेखनी से प्रेरित होते रहती हूं।
पुनीता