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फ़िर से बेटी?


आज भी याद है, जब कोशी होनेवाली थी। तोषी हमारे साथ पहले से थीं, इसलिए सभी ने एक स्वर से कहना शुरू कर दिया कि अब तोबेटा हो जाना चाहिए। परिवार पूरा हो जायेगा। एक कम्पलीट फैमिली। कोई मुझसे ये नही पूछ रहा था कि मुझे क्या चाहिए? हम चाहते तो उसका लिंग परीक्षण करवा सकते थे। मगर अचानक परिणाम के सामने आने की खुशी अनुमानित खुशी से कई गुना ज़्यादा होती है। दूसरे, हमें इसकी कोई ज़रूरत ही नही थी। मैं तो यह देख कर हैरान थी कि शहर के सभी काजी दुबले हो रहे थे। मैंने पूछा कि अगर मुझे पहले तोषी के बदले कोई तोष या रमेश या महेश हुआ रहता तो भी आपलोग क्या यही कहते कि अब तो बेटी होनी ही चाहिए? नहीं, तब आप यह कहते कि कुछ भी हो, चलेगा। यह मेरे साथ नहीं, मगर उन महिलाओं के साथ तो होता ही है, जिनकी पहली संतान बेटा है। और दरअसल मुझे बेटा नहीं चाहिए, आपकी सूचना के लिए। यकीन करेंगे आप कि मेरे उस ८ मंजिला ऑफिस इमारत में जंगल में लगी आग की तरह ख़बर फ़ैल गई कि विभा को दुबारे भी बेटी ही चाहिए। लोग आ- आ कर पूछने लगे क्यों भाई, , ऐसा क्यों? मैं शायद तब इतनी मुखर नहीं थी, फ़िर भी बोली थी कि आख़िर यह मैं चाहती हूँ, मैं माँ बन रही हूँ, मेरी मर्जी कि मैं क्या चाहती हूँ। कईयों ने तो यह भी पूछ लिया कि अगर बेटा हुआ तो क्या करेंगी? उसे फेंक देंगी या अनाथालय में दे देंगी। खैर, फेंकने या अनाथालय का मुंह देखने की नौबत नही आई, क्योंकि मेरे घर में तोषी की बहन कोशी आई। आपरेशन थिएटर में ही मैंने पूछ लियाथा, जब उसे पेट से निकाला गया, उसकी कांय की आवाज़ और उसकी पीठ मैं सुन व देख पाई थी। ओह, विरल अनुभव था वह, मुझसे रहा नही गया और मैंने पूछ ही लिया- "What is the child? ' "Baby girl." इस उत्तर ने मुझे फूल से भी ज़्यादा हल्का कर दिया। एनीस्थिसिया ने भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। मैं गहरी नींद सो गई थी। ईथर और खुशी के नशे के मिले जुले असर में। होश आने पर जब उसे देखा, तब मेरे मन में एक पक्ति गूँज उठी- 'मेरे घर आई एक नन्ही परी'
अब यह नन्ही परी अपनी उम्र की यात्रा तय करते करते १०वी कक्षा तक पहुँच चुकी है। १२ मार्च से होनेवाली अपनी परीक्षा की तैयारी में लगी है, मगर मुझे अभी भी नही भूलता वह दिन, जब वह आई थी। कितनी समझदार हो गई है वह। मेरे दफ्तर से लौटने पर मेरी तबियत ख़राब देखती है टू मेरे हाथ से मेरा बैग, थैला ले लेती है, पानी ला कर देती है। अभी उसके दादा दादी आए थे, अपनी दादी की साड़ी धूप में डालने का काम बगैर किसी के कहे -सुने ले लिया था। सचमुच, कितनी प्यारी व समझदार होती हैं बेटियाँ।

1 comment:

manjula said...

बेटी क्‍या होती है, यह पितृ समाज क्‍या जाने. उस मां से पूछो, रसोई में व्‍यस्‍त इधर उधर सब संभालती, अचानक पीछे से दो नन्‍हें हाथ आकर कमर से लिपट जाते हैं और मां अपनी दिन भर की थकान भूल जाती है. पति से बहस, समाज का दबाव और कोई ना हो आपके मन को समझने वाला, और आप एक अकेले कोने में चुपचाप आंसू बहाने के सिवा कुछ ना कर सके, तब चुपचाप अपने खेल छोड़ कर कहीं से आ जाती है बेटी. वह आपकी तकलीफ का कारण नहीं समझ पाती पर आपकी तकलीफ पहचानती है और चुपचाप आपके आंसू पोछ कर आपसे चिपट कर बैठी रहती है अपने दोस्‍त अपने मनपसंद खेल भूल जाती है कुछ समय के लिए. तब आपके अंधेरे अकेले मन में इंद्रधनुष की तरह छा जाती है बेटी. बेटी की मां बनना मेरे जीवन की सबसे प्‍यारी घटना है. दुनिया की सभी बेटियों को इस मां का सलाम