वे तीनों अलग-अलग शहरों से चौथे दोस्त की बेटी के ब्याह में आये थे
और कई दिनों बाद इस तरह इकट्ठे हुए थे
इस समय जब दोपहर लगभग ढल रही थी
तीनों घर के सामने एक पेड़ की छांव में बैठे हुए थे
और चौथे की बेटी की विदाई हो रही थी
अभी कुछ देर पहले तक वे हंस रहे थे और आपस में बतिया रहे थे
अब चौथे की बेटी लगभग घर के दरवाजे पर आ पहुंची थी
और रस्म के अनुसार कोई मखाने और पैसे फेंक रहा था
बेटी कभी मां और कभी भाई के गले लग कर रो रही रही थी
चौथा उसे अपनी एक बांह के घेरे में लिये था
वह अपने को संयत रखने की भरसक कोशिश कर रहा था
पर उसकी आंख की कोरें बार-बार भींग जाती थीं
वह रुमाल को चश्मे के कोनों के पास लाकर चुपके से उन्हें पोंछ लेता था
वह घर के सामने बैठे तीनों दोस्तों की ओर देखने से बच रहा था
तीनों दोस्त एकायक चुप से हो गए थे
जैसे अचानक उनकी सारी बातें ख़त्म हो गयी हों
इनमें से एक की बेटी का ब्याह दस दिन बाद था
और दूसरे की बेटी का ग्यारह दिन बाद
थोड़ी देर पहले दोनों इसी बात पर अफसोस कर रहे थे
कि वे शामिल नहीं हो पायेंगे एक दूसरे की बेटी के ब्याह में
तीसरे की बेटी अभी कॉलेज में पढ़ रही थी
चौथे की बेटी लगभग घर की देहरी पर आ चुकी थी
तीनों दोस्त बीच-बीच में चौथे की तरफ देखते थे
चौथा तीनों से अपनी आँखें चुरा रहा था
तीनों में जो सबसे ज्यादा अनुभवी थी, कह रहा था
कि अभी तो चौथा अपने को बहुत संभाले हुए है
लेकिन विदा के बाद इसे संभालना होगा
तीनों दोस्त चुप थे
और एक दूसरे से अपना रोना छिपा रहे थे
तीनों एक दूसरे से नज़र चुराते हुए किसी न किसी बहाने
चुपचाप पोंछ रहे थे बार-बार भींग जाती
आंखों की कोरों को
चौथे की बेटी की विदाई में देख रहे थे तीनों
अपनी-अपनी बेटी को विदा होते
तुमने देखा है कभी
बेटी के जाने के बाद कोई घर?
जैसे बिना चिड़ियों की सुबह हो!
जैसे बिना तारों का आकाश!
बेटियां इतनी यकसां होती हैं
कि एक की बेटी में दिखती है दूसरे को अपनी बेटी की शक्ल
चौथे की बेटी जब बैठ कर चली गयी कार में
तो लगा जैसे ब्रह्मांड में कोई आवाज़ नहीं बची
एकाएक अपनी उम्र लगी हम सबको
अपनी उम्र से कुछ ज़्यादा
बेटी की विदा
राजेश जोशी की ये अंत्यंत ही मार्मिक कविता विजय शंकर जी ने ख़ास तौर पर बेटियों के ब्लॉग के लिए भेजी है। हम विजय जी की भावना की क़द्र करते हुए इसे यहां प्रकाशित कर रहे हैं। लेकिन हमारी ये ख़्वाहिश है कि हमारी बेटियां विदा होकर कभी न जाए। हमारा घर उसके लिए पराया कैसे हो सकता है। वे अपनी दुनिया वहीं आबाद करे, जहां वे पैदा हुईं। कहीं और करना चाहे, तो ये उसकी मर्जी होगी - परंपरा से चली आ रही विदा बेला का कोई आधुनिक पाठ रचने में ये ब्लॉग मदद करता है, तो यही हमारी क़ामयाबी होगी। बहरहाल, शुक्रिया विजय शंकर जी। बहुत बहुत शुक्रिया।
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4 comments:
AISAA HI HOTAA HAI...PAAPAA CHUCHUP KE ROTEY HAIN
बधाई अच्छा प्रयास है. पर पापओ और मम्मी की सुरक्शित छाव से जब यही बेटिया बाहर जाती है, तो सडक, दफ्तर, बाज़ार, स्कूल, कोलेज, सभी कितने खूंखार होते है?
अच्छा हो की सिर्फ एमोस्नल होने और खाने-पीने, शादी-बर्बादी से आगे ये ब्लोग, इन्ही बेटियोन को सामाजिक रंग्मंच मे कैसे शामिल किया जाय, इस पर आगे बडे. और जो दूसरो की बेटिया इन बापो के आस-पास है, उनके प्रति भी एक व्यक्ति का सम्मान बनाये रखे.
य़े बेटिया भी तभी सुरक्शित रहेंगी, जब घर से बाहर, व्रिहतर समाज स्वस्थ होगा.
कविता छापने के लिए अनेकानेक धन्यवाद अविनाश जी!
Avinash ji,rajesh joshi kee bhetereen kavita prakashit karne ke leye dhanyyawad.
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