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बताएं, क्या करें बेटियाँ

इस ब्लाग को अवार्ड मिल गया। निमित्त मेरा एक लेख बना। बेटियों के गर्वीले माँ-बाप अपनी बेटियों के बारे में लिख रहे हैं। में भी उनमें से एक हू। ख़ुद भी बेटी हू। कभी कभी तो बेटी ही बने रहने का ऐसा जी चाहता है कि अपनी ही बेटी से माँ जैसे बर्ताव की उम्मीद लगा बैठती हूँ। मगर बेटी होने के कई अवसाद ग्रस्त और खून खुअला देनेवाले वाकयात कभी कभी यह सोचने पर मज़बूर कर देते हैं कि हम बेटी क्यों हुए?

आज ही एक अखबार में एक ख़बर है कि ४ साल की बच्ची को उस व्यक्ति से मुक्त कराया गया जो यह विश्वास रखता है कि कम उम्र की अक्षत योनी कन्या के साथ सम्भोग करके वे कई बीमारियों से मुक्ति पा सकते हैं। यह केवल इस भ्रम या रुधि ही नहीं, वरन नई व अनूठी खोज के लोलुप के द्वारा भी एअसी घटनाएँ सुनाने को मिलाती हैं। कई तथ्यों से, सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है दुध्मुम्ही बच्चियाम अपने ही करीबी और रिश्तेदारों की लोलुपता का शिकार होती रही हैं।

बच्चियां बिचारी क्या करें? वे जन्मना छोर देन, या जनम कर किसी कोने में मुंह छुपाये रहें। इन नन्ही बच्चियों का व्यवसाय करनेवालों के लिए यह एक दीर्घ कालिक निवेश हाय। कितना सही शब्द है न बाज़ार का यह। एक उपभोग की वस्तु में तब्दील होती बेटियाँ, अपने तन से, मन से नकार दी जाती हुई।

मेरे मन में यह सवाल आता है कि आख़िर कौन हैं ये लोग? क्या वे आकाश से टपक आए हैं या उन्हें भी किसी बेटी ने ही अपनी कोख मी धारा होगा, अपने कलेजे का खून दूध मी बदल कर पिलाया होगा। उनकी भी तो कोई बहन होगी, जो अपने भाई पर इस चरम आस्था के साथ कि संकट में वह उसकी रक्षा करेगा, उसकी कलाई पर राखी बांधती होगी। उसकी भी तो पत्नी होगी, जो एक पूरे समर्पण और विश्वास के साथ अपनी पूरी दुनिया छोड़ कर आई होगी। उसकी भी तो बेटी होगी, जो उसके ही अंश से जन्मी है। ऐसा भीषण कृत्य करते हुए क्या उनके मन में इन सबकी कोई छवि नहीं उभरती?

जेल में अपने काम के दौरान कई बार ये सवाल उठे। वहां के अधिकारियों से भी बातें कीं। वे सब भी इस बात पर सहमत थे किएक बार तो खून के अपराध को गलती का अंजाम माना जा सकता है, मगर रेप को नहीं। लोक पर काम करते हुए मिथिला कि एक लोक कथा इस आशय की मिल गई। उसी समय दिल्ली में एक घटना हुई थी, जिसमें पिटा व भाई द्वारा एक लड़की लगतार १५ दिनों तक पिसती रही। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने एक नाटक लिखा- 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' मोहन राकेश सम्मान इसे मिला है। मगर यह मेरे लिए नरक कि कल्पना से भी ज़्यादः भयावह है। एक बारकिसी से कहा था किबच्चे, ख़ास कर बेटियाँ कभी खोये ना। खोने से अच्छा है कि वे मर जाएं। मित्र को यह बात बुरी लगी थी। आप सबको भी बुरी लग सकती है, मगर ज़रा सोचिये कि हम उस बच्ची को कैसा जीवन दे रहे हैं, जो किसी और की हवस कया शिकार बने और उस पर भी हमारा समाज ख़ुद को सभ्य कहता रहे। यह कैसी दुनिया है। जब कभी इस तरह की ख़बर पर ध्यान जाता है, मन अकुलाने लगता है। आप सब बेटियों के बाप हैं। ऐसों को केवल समाज का कोढ़ या जंगली जानवर, मानवता कया हत्यारा आदि कह देने से काम नही चलेगा। सोचिये कि क्या किया जाए ऐसा, जहाँ हमारी बेटियाँ सुरक्षित रहें। उनके मन पर इस तरह की कोई छाप ना परे, जो उनके पूरे जीवन कू सोख कर रख दे।

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4 comments:

समयचक्र said...

बेटियो के बारे मे आपके विचार सही है और मैं शतप्रतिशत सहमत हूँ . बढ़िया आलेख

Rajesh Roshan said...

विभा जी मैं आपकी बातो से सहमत हू. खबर पढ़ कर ही मन ख़राब हो जाता लेकिन फ़िर भी मेरे नजर में एक सिरे से समाज को ख़राब या अच्छा कह देना थोड़ा अजीब लगता है.

किसी एक ने यह कृत्य किया समाज असभ्य हो जाता है जबकि इसी समाज में कई ऐसे लोग भी रहते हैं जो ऐसे कृत्यों के ख़िलाफ़ अपनी जान तक दे सकते हैं. तब समाज अच्छा नही हो जाता. आप समाज के लिए कई अच्छी चीजे करती होंगी समाज तब क्या अच्छा नही होता!!!???

Vibha Rani said...

bilkul achchha hota hai raajesh ji, magar yadi 1% bhi buraaii hai to hai. ham is par kaise kaabuu karein, hamein is par sochna hai. aakhir ye poorii kii poori zindagii ka, asmitaa kaa saval ho jata hai. ek bhi aisi ghatna hamein sabhyata ke labaade se door feink hame vivastr kar detii hai. main is napak pravritti ke khilaaf bol rahi hoon.

हर्ष प्रसाद said...

meri bhi ek beti hai aur ek beta bhi hai jo in pratikriyaayon par hanste hain. Koi dushkarm agar duniyaa mein kisi beti ke saath hota hai, wo utna hi ghinauna hai jitna agar kisi bete ke saath ho, jo ki aaye din hum padhte hain. Aaj ke samay mein please is tarah ke blogs ko support karke aur discrimination mat paida kijiye. IFPA jisne award vaghairah diye hain unka agenda main khoob jaanta hoon. Unki working maine bahut qareeb se dekhi hai, isliye unke award ki duhaayee mat deejiye. Hum sabhee acchi tarah se jaante hain ke duniyaa hamaari betiyon aur beton ke liye samaan ho chuki hai. Jo aaj bhi betiyon pe huye atyachaar par rote hain, unhone khud apni betiyon ki parvarish mein kotaahi baratee hai aur uska muaafzaa bhar rahe hain.