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वेब दुनिया पर बेटियों का ब्‍लॉग

एक ब्‍लॉग है बिटिया रानी का

मनीषा पांडे

कहने को तो गीत, कविता, कहानियों, मुहावरों और किंवदंतियों में ‘राजदुलारा, आँखों का तारा’ जैसी बातें ही मिलती हैं। राजदुलारी पर गीत भले बहुत न हों, लेकिन बदलते मूल्‍यों और भावनात्‍मक संबंधों में बेटी की जगह बदल रही है, खासकर पिता की नजरों में। पिता और पुत्री का संबंध शायद बाप-बेटे के रिश्‍ते से कहीं ज्‍यादा कोमल और भावनात्‍मक होता है। निराला ने अपनी बेटी के अवसाद में पूरा काव्‍य ही रच डाला। बेटी पिता का प्‍यार है, दुलार है, वो उसके अधूरे सपनों की पूरी कड़ी है।

हिंदी ब्‍लॉगिंग के क्षितिज का निरंतर विस्‍तार हो रहा है। इसी कड़ी में एक नई सार्थक पहल की है, ऐसे पिताओं ने मिलकर, जिनकी आँखें अपनी बेटी की किलकारियों से रौशन हैं। अपनी राजदुलारी के हर नन्‍हे कदम, हर किलकारी और उसकी आँखों में झिलमिलाती हर रौशनी को शब्‍दों में उतार देने के लिए। यादें दिल में ही न रह जाएँ, वो पन्‍नों पर उतरें और सदा के लिए अंकित हो जाएँ।

ब्‍लॉग की शुरुआती भूमिका में अविनाश लिखते हैं, ‘ये ब्‍लॉग बेटियों के लिए है। हम सब, जो सिर्फ बेटियों के बाप होना चाहते थे, हैं, ये ब्‍लॉग उनकी तरफ से बेटियों की शरारतें, बातें साझा करने के लिए है।’

कहने को तो गीत, कविता, कहानियों, मुहावरों और किंवदंतियों में ‘राजदुलारा, आँखों का तारा’ जैसी बातें ही मिलती हैं। राजदुलारी पर गीत भले बहुत न हों, लेकिन बदलते मूल्‍यों और भावनात्‍मक संबंधों में बेटी की जगह बदल रही है, खासकर पिता की नजरों में।
बेटियों के इस ब्‍लॉग में कहीं नन्‍हे पाँवों के निशान हैं, तो कहीं नन्‍हीं उँगलियों की छाप। कहीं मासूम तुतलाहट है, तो कहीं आत्‍मविश्‍वास से भरा नन्‍हा-सा सुर। कस्‍बा वाले रवीश कुमार, कबाड़खाना के कबाड़ी अशोक पांडे, मोहल्‍ला फेम अविनाश समेत इरफान, अजय ब्रम्‍हात्‍मज, राजकिशोर, प्रियंकर, नसिरुद्दीन, विमल वर्मा, राकेश और पुनीता समेत कई लोग इस ब्‍लॉग के सदस्‍य हैं। सभी के दिल बेटियों के प्रेम लदबद हैं और पुनीता एक बेटी की माँ और खुद एक बेटी हैं। उन्‍होंने एक बेटी के रूप में अपने अनुभवों और अपनी बेटी के किस्‍सों से ब्‍लॉग को गुलजार किया है।

अविनाश, जो हाल ही में पिता बने हैं, के पास बताने को ढेरों बात हैं, ‘अभी जाड़ा है। श्रावणी कपड़ों से पैक रहती है। गर्मी होती तो अब तक पलटी मार देती। अभी आँधी की तरह पाँव फेंककर काम चलाती है। अँगूठा चूसने की कोशिश कर रही है। मुक्‍ता रोमांचित होकर उसका अँगूठा मुँह के भीतर डालने लगती है। पर बाबूजी गुरु गंभीर होकर बोलते हैं - जीवन को उसके सहज प्रवाह में रहने दो। अपनी तरफ से उसे मोड़ने की कोशिश मत करो।'

रवीश की बिटिया अपने पापा को रेपिडेक्‍स की तरह बंगाली सिखाती है और पापा किसी आज्ञाकारी बच्‍चे की तरह सीखते भी हैं, ‘तिन्नी गुस्सा गई। बोली कि बाबा तुम मेरे साथ बांग्ला बोलो तो। मैंने कहा, मुश्किल है। तिन्नी ने कहा बेश आशान है। चलो मैं सिखाती हूँ। जब मैं बोलूँगी कि बाड़ी ते चॉप बनानो होए छे। तो तुम बोलोगे- के बानिये छे। फिर मैं बोलूँगी- नानी बानिये छे। चार साल की बेटी ने एक मिनट में रैपिडेक्स की तरह बांग्ला के दो वाक्य सिखा दिए। तिन्नी कहने लगी, बाबा तुमी आमार शंगे बांग्ला बोलो। भाल लागबे।'

इन किलकारियों के बीच कहीं आँखें भी कर आती हैं, जब राजेश जोशी की एक बेहद मार्मिक कविता की ये पंक्तियाँ आँखों के सामने से गुजरती हैं :
तुमने देखा है कभी
बेटी के जाने के बाद कोई घर?

जैसे बिना चिड़ियों की सुबह हो!
जैसे बिना तारों का आकाश!

बेटियाँ इतनी यकसाँ होती हैं,
कि एक की बेटी में दिखती है, दूसरे को अपनी बेटी की शक्ल

चौथे की बेटी जब बैठकर चली गई कार में,
तो लगा जैसे ब्रह्मांड में कोई आवाज़ नहीं बची।

एकाएक अपनी उम्र लगी हम सबको
अपनी उम्र से कुछ ज़्यादा।
नसिरुद्दीन नन्‍दकिशोर टहवाल की एक कविता के बहाने अपनी बात कहते हैं :
बोए जाते हैं बेटे
उग आती हैं बेटियाँ

खाद-पानी बेटों में
पर लहलहाती हैं बेटियाँ

एवरेस्ट पर ठेले जाते हैं बेटे
पर चढ़ जाती हैं बेटियाँ

रुलाते हैं बेटे
और रोती हैं बेटियाँ

कई तरह से गिराते हैं बेटे
पर सँभाल लेती हैं बेटियाँ।
इस ब्‍लॉग से गुजरते कई बार मासूम मुस्‍कुराहटों के बीच आँखें भी भीग जाती हैं :
बिटिया समुद्र होती है
उसे कुछ भी दो वह लौटा देगी
उसे याद करो न करो
वह बार-बार आकर करती है सराबोर
हमारे तटों को

अनगिनत रहस्य अपने में समेटे
बिटिया होती है दो तिहाई भाग
हमारे घर का...
अजय ब्रम्‍हात्‍मज जब कहते लिखते हैं कि मधुमेह से ग्रस्‍त पिता को बेटी रसगुल्‍ला नहीं खाने देती, तो बेटी के लिए उनका प्‍यार और पिता के लिए बेटी की चिंता दोनों ही झलकते हैं। फिलहाल रसगुल्‍ला तो नहीं मिलता, लेकिन अपनी प्‍यारी बिटिया रानी के लिए वो झींगा जरूर पकाते हैं।

राकेश को उलझे, घुँघराले बालों में चोटी बनाने का कोई अनुभव नहीं है। लेकिन हर सुबह स्‍कूल के लिए तैयार करते बिटिया की चोटी बनाने का अनुभव राकेश कुछ यूँ बयान करते हैं, 'अब दस मिनट तक तो उसके घुँघराले बालों को, जिसे वो मैगी कहती है, कंघी से सीधा करना पड़ता है और तब जाकर कहीं उसमें रबड़ लग पाता है. पर मेरी खीझ पर उसका धैर्य अकसर भारी पड़ता है. बोलती है, 'पापा, मैं सिर नहीं हिलाउँगी तुम मेरी चोटी लगा दो'. रबड़ को वो चोटी कहती है.'

पिता बिटिया की चोटी बना रहे हैं, उसका मनपसंद खाना बना रहे हैं। बिटिया की जिद है, माँ नहीं, पापा के ही हाथ का खाना है। और पिता इस जिद से खुश हैं। इनमें बहुत से ऐसे भी पिता होंगे, जो अपनी पत्‍नी के लिए शायद बहुत सामंती पति हों, लेकिन बिटिया के लिए बिल्‍कुल सच्‍चे, सीधे, कोमल पिता हो जाते हैं।

रिश्‍ते बदल रहे हैं, मूल्‍य, विचार भावनाएँ सबकुछ। मुझे याद नहीं कि मेरे पिता ने कभी मेरी चोटी की हो। ये सारे काम हमेशा से माँ के ही जिम्‍मे रहे। आज के पिता ज्‍यादा समझदार और संवेदनशील हैं। वो पिता होने के सुख और दायित्‍व दोनों को समझ रहे हैं। और यह दायित्‍व कोई बोझ नहीं, बल्कि इसमें भी एक आनंद है। यह आनंद बदलते वक्‍त के संवेदनशील पिताओं के व्‍यवहार और उनके शब्‍दों में झलकता है। इसी का परिणाम है, यह ब्‍लॉग जो बदलते वक्‍त की ढेरों सुगबुगाहटों में अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा रहा है।

बेटी पिता को ज्‍यादा मनुष्‍य बनाती है, ज्‍यादा गहरा और कोमल। वह उसे इंसान बनाती है। बेटियाँ पिता को बदलती हैं।

रवीश यह स्‍वीकार भी करते हैं, ‘मेरी बेटी हर दिन मुझे बदल देती है। आज ही दफ्तर से लौटा तो स्वेटर का बटन बंद कर दिया। चार साल की तिन्नी ने कहा कि ठंड लग जाएगी। बाबा तुम एकदम पागल हो। बेटियों को ख्याल करना आ जाता है। बस हम लोग यानी पुरुष पिता उस ख्याल को अपने अधिकारों से नियंत्रित कर नियमित मज़दूरी में बदल देते हैं। छुट्टी के दिन वही तय करती है। कहती है, आज बाबा खिलाएगा। बाबा घुमाएगा। बाबा होमवर्क कराएगा। मम्मी कुछ नहीं करेगी। मैं करने लगता हूँ। वही सब करने लगता हूँ, जो तिन्नी कहती है। मैं बदलने लगता हूँ। बेहतर होने लगता हूँ। बेटियों के साथ दुनिया को देखिए, अक्सर मन करता है इसे इस तरह बदल दें। इसके लिए खुद बदल जाएँ।'

बेटियों का यह ब्‍लॉग सचमुच एक क्रांतिकारी कदम है। यह बदलती दुनिया की सुगबुगाहट और उसका दस्‍तावेज है। बेटियों का स्‍थान बदल रहा है, बेटियाँ पिताओं को बदल रही हैं। बेटियाँ दुनिया को बदल रही हैं। बेटियाँ खुद भी बदल रही हैं। चीजें बदल रही हैं। हमें इसके सुंदर, और सुंदर होते जाने की उम्‍मीद है।

7 comments:

Anonymous said...

betiyon ka nanha blog sada bahar guljar rahe,shub aashish ke saath.

ghughutibasuti said...

पढ़कर बहुत अच्छा लगा । मैंने भी अपने पति को बेटियों के लिए बदलते देखा है । मैं स्वयं तो जो भी हूँ उसका एक बहुत बड़ा भाग अपनी बेटियों के कारण ही हूँ । यदि बेटियाँ अनुमति देंगी तो उनके विषय में यहाँ अवश्य लिखूँगी ।
घुघूती बासूती

विनीत कुमार said...

तुम्हारे चाचू पता नहीं तुम्हारे बड़े होने तक पता नहीं क्या-क्या जुटा पाएंगे पता नहीं लेकिन ढाई साली की खुशी को बताता रहता हूं कि बेटी, बिरासत में तुम्हें ब्लॉग जरुर मिलेगा। अब तो बस इंतजार है कि इस पर खुशी, किलकारी और दुनिया भर की बेटियाम खुद से लिखने लग जाए और बाप -चाच को उसके बारे में लिखने से मुक्ति मिल जाए।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत अच्छा ब्लाग है पढ कर अच्छा लगा।सच है घर में बेटी के आते ही बहुत कुछ बदलनें लगता है।जो घर को महकाने लगता है।

सुजाता said...

बहुत बढिया लिखा मनीषा !
बेटी तो नही है हमारी पर हमारा खुद बेटी हैं किसी की :-)

sanjay patel said...

आँखों में इन्फ़ेक्शन था पिछले हफ़्ते...गहरी पीड़ा थी....बेटा भी है एक मेरा...बेटी भी.बेटे को कहा आँखों में दवा डाल दो....जवाब:डैड (इस संबोधन में कैसी निर्जीवता है न)यार अभी मैं ये सम्स कर रहा हूँ..शायद संबोधनों से भी रिश्ते डिफ़ाइन होते हैं.और बेटी बिलानागा दवा डालती रही...बिना याद दिलाए..बल्कि मुझे याद दिलाती रही डैडी लेटो ...दवा डालने का टाइम हो गया. किसे और क्यों कहूँ..आँखों का तारा...हालाँकि बेटे ने ये सब दुर्भावनावश नहीं किया क्योंकि उसे दुनियादारी की इतनी जानकारी भी नहीं...बेटी भी तो उससे महज़ दो बरस बड़ी है....लेकिन सवाल है संवेदनशीलता का...और मुझे कुछ नहीं कहना है...

sanjay patel said...
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