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मेरी बेटी

आज कबाड़ख़ाने पर इब्बार रब्बी साहब की दो कविताएं पोस्ट कर रहा था तो जेहन में उनकी यह कविता लगातार गूंज रही थी। चलिए इस बहाने बेटियों के ब्लॉग में मेरी पहली एन्ट्री तो हुई।
मेरी बेटी

मेरी बेटी बनती है
मैडम
बच्चों को डांटती जो दीवार है
फूटे बरसाती मेज़ कुर्सी पलंग पर
नाक पर रख चश्मा सरकाती
(जो वहां नहीं है)
मोहन
कुमार
शैलेश
सुप्रिया
कनक
को डांटती
ख़ामोश रहो
चीखती
डपटती
कमरे में चक्कर लगाती है
हाथ पीछे बांधे
अकड़ कर
फ़्राक के कोने को
साड़ी की तरह सम्हालती
कापियां जांचती
वेरी पुअर
गुड
कभी वर्क हार्ड
के फूल बरसाती
टेढ़े मेढ़े साइन बनाती

वह तरसती है
मां पिता और मास्टरनी बनने को
और मैं बच्चा बनना चाहता हूं
बेटी की गोद में गुड्डे सा
जहां कोई मास्टर न हो!

5 comments:

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर।
घुघूती बासूती

परमजीत सिहँ बाली said...

आप की रचना पढ कर अपनी भतीजी याद आ गई।बहुत बढिया!!

Anonymous said...

Waah! Nagaarjun Baba ki likhi huyi ek kavita ki yaad taaza ho gayi.

मनीषा पांडे said...

बहुत सुंदर कविता है।

अजय कुमार झा said...

sabke paas aisee betiyaan honee hee chaahiye.aapko padh kar achha lagaa